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अहमद फ़राज़ - दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला

(13)

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अन्दाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला

अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मेरा
सख़्त नादिम है मुझे दाम  में लानेवाला

सुबह-दम छोड़ गया निक़हते-गुल  की सूरत
रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जानेवाला

तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आनेवाला

मुंतज़िर किसका हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला

मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बतानेवाला

क्या ख़बर थी जो मेरी जान में घुला है इतना
है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो "फ़राज़"
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला

 - अहमद फ़राज़


शब्दार्थ:


1.    ज़ालिम  = अत्याचारी
2.    नादिम  = लज्जित
3.    दाम  =  जाल बंधन
4.    निक़हते-गुल  = गुलाब की ख़ुश्बू की तरह
5.    ग़ुंचा-ए-दिल  =  दिल की कली
6.    मरासिम  = मेल-जोल
7.    मुंतज़िर =  प्रतीक्षारत
8.    बहारों  =  वसंत ऋतुओं
9.    ताबीर  = स्वप्नफल
10.    सर-ए-दार  = सूली तक
11.    तक़ल्लुफ़ = औपचारिकता
12.    इख़लास =  प्रेम


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अहमद फ़राज़ - वही है जुनूँ है वही क़ूच-ए-मलामत है

(12)

वही है जुनूँ है वही क़ूच-ए-मलामत है 

वही है जुनूँ है वही क़ूच-ए-मलामत है 
शिकस्ते-दिल प’ भी अहदे-वफ़ा सलामत  है

ये हम जो बाग़ो-बहाराँ  का ज़िक्र  करते हैं
तो मुद्दआ  वो गुले-तर  वो सर्वो-क़ामत  ]है

बजा ये फ़ुर्सते-हस्ती  मगर दिले-नादाँ
न याद कर के उसे भूलना क़यामत  है

चली चले यूँ ही रस्मे-वफ़ा  -ओ-मश्क़े-सितम
कि तेगे़ -यारो-सरे-दोस्ताँ  सलामत है

सुकूते-बहर से साहिल   लरज़  रहा है मगर
ये ख़ामुशी किसी तूफ़ान की अलामत है

अजीब वज़्अ का ‘अहमद फ़राज़’ है शाइर
कि दिल दरीदा मगर पैरहन सलामत है

 - अहमद फ़राज़

शब्दार्थ:

1.    जुनूँ = उन्माद
2.    क़ूच-ए-मलामत = निंदा वाली गली
3.    शिकस्ते-दिल = दिल के टूटने
4.    अहदे-वफ़ा = वफ़ादारी का प्रण
5.    सलामत = सुरक्षित
6.    बाग़ो-बहाराँ = वाटिका और वसंत
7.    ज़िक्र = चर्चा
8.    मुद्दआ = उद्देश्य
9.    गुले-तर = ताज़ा फूल
10.    सर्वो-क़ामत = सर्व वय्क्ष जैसे सुंदर डील-डौल वाला
11.    फ़ुर्सते-हस्ती = जीवनकाल
12.    दिले-नादाँ = नादान दिल
13.    क़यामत = महाप्रलय
14.    रस्मे-वफ़ा =  वफ़ादारी की परंपरा
15.    ओ-मश्क़े-सितम = अत्याचार का अभ्यास
16.    तेगे़-यारो-सरे-दोस्ताँ = मित्रों और प्रियजनों की तलवार
17.    सुकूते-बहर =  महासागर का मौन
18.    साहिल = तट
19.    लरज़ = काँप
20.    अलामत = लक्षण
21.    वज़्अ = शैली
22.    दरीदा  = दु:खी हृदय
23.    पैरहन = वस्त्र   

                                                  

अहमद फ़राज़ - हाथ उठाए हैं मगर

(11)


हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं

हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं
की इबादत भी तो वो जिस की जज़ा  कोई नहीं

ये भी वक़्त आना था अब तू गोश-बर- आवाज़  है
और मेरे बरबते-दिल  में सदा  कोई नहीं

आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
कौन मानेगा के हम में बेवफ़ा कोई नहीं

वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्शे-पा  कोई नहीं

ख़ुद को यूँ महसूर  कर बैठा हूँ अपनी ज़ात  में
मंज़िलें चारों तरफ़ है रास्ता कोई नहीं

कैसे रस्तों से चले और किस जगह पहुँचे "फ़राज़"
या हुजूम-ए-दोस्ताँ था साथ या कोई नहीं

 - अहमद फ़राज़

शब्दार्थ:

1.    जज़ा =  प्रतिफल
2.    गोश-बर- आवाज़ = आवाज़ पर कान लगाए हुए
3.    बरबते-दिल = सितार जैसा एक वाद्य यंत्र
4.    सदा = आवाज़्
5.    नक़्शे-पा =  पद-चिह्न
6.    महसूर = घिरा हुआ
7.    ज़ात = अस्तित्व
8.    हुजूम-ए-दोस्ताँ = दोस्तों का समूह

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अहमद फ़राज़ - ख़्वाब मरते नहीं

(10)

ख़्वाब मरते नहीं

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा  हुए तो बिखर जाएँगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएँगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं  हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नहीं
रोशनी और नवा के अलम
मक़्तलों  में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़  हैं
ख़्वाब तो नूर  हैं
ख़्वाब सुक़रात  हैं
ख़्वाब मंसूर  हैं.

 - अहमद फ़राज़


शब्दार्थ:

1.    रेज़ा-रेज़ा =  कण-कण
2.    नवा =  आवाज़
3.    मक़्तलों  = वधस्थल
4.    हर्फ़ = अक्षर
5.    नूर = प्रकाश
6.    सुक़रात  =  जिन्हें सच कहने के लिए ज़ह्र का प्याला पीना पड़ा था
7.    मंसूर  =  एक वली(महात्मा) जिन्होंने ‘अनलहक़’ (मैं ईश्वर हूँ) कहा था और इस अपराध के लिए उनकी गर्दन काट डाली गई थी
              
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अहमद फ़राज़ - चलो ये इश्क़ नहीं

 (7)

 चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है

चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है

तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है

मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी
न वो सख़ी न तुझे माँगने की आदत है

विसाल में भी वो ही है फ़िराक़ का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है

ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर उसे सोचने की आदत है

ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है


-   अहमद फ़राज़


शब्दार्थ:

1. ज़ाया = व्यर्थ

2. महरूमी = वंचितता

3. सख़ी = दानवीर

4. विसाल = मिलन

5. फ़िराक़ = जुदाई

6. ना-सुबूर =  ना-समझ
                
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अहमद फ़राज़ - दुख फ़साना नहीं

(8)

दुख फ़साना नहीं के तुझ से कहें

दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें
दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें

आज तक अपनी बेकली का सबब
ख़ुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें

बेतरह हाले दिल है और तुझसे
दोस्ताना नहीं के तुझसे कहें

एक तू हर्फ़ आशना था मगर
अब ज़माना नहीं के तुझसे कहें

क़ासिद! हम फ़क़ीर लोगों का
एक ठिकाना नहीं के तुझसे कहें

ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त
आब-ओ-दाना नहीं के तुझसे कहें

अब तो अपना भी उस गली में ’फ़राज’
आना जाना नहीं के तुझसे कहें

- अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ - किस को गुमाँ है अब

(9)

किस को गुमाँ है अबके मेरे साथ तुम भी थे

किस को गुमाँ है अब के मेरे साथ तुम भी थे
हाय वो रोज़ो-शब के मेरे साथ तुम भी थे

यादश बख़ैर अहदे-गुज़िश्ता की सोहबतें
एक दौर था अजब के मेरे साथ तुम भी थे

बे-महरी-ए-हयात की शिद्दत के बावजूद
दिल मुतमईन था जब के मेरे साथ तुम भी थे

मैं और तकाबिले- ग़मे-दौराँ का हौसला
कुछ बन गया सबब के मेरे साथ तुम भी थे

इक ख़्वाब हो गई है रह-रस्मे- दोसती
एक वहम -सा है अब के मेरे साथ तुम भी थे

वो बज़्म मेरे दोस्त याद तो होगी तुम्हें "फराज़"
वो महफ़िले-तरब के मेरे साथ तुम भी थे

- अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ - देख ये हौसला मेरा


(6)
                  
देख ये हौसला मेरा, मेरे बुज़दिल दुश्मन

देख ये हौसला मेरा मेरे बुज़दिल दुश्मन
तुझ को लश्कर में पुकारा तन-ए-तन्हा हो कर

उस शाह-ए-हुस्न के दर पर है फ़क़ीरों का हुज़ूम
यार हम भी ना करें अर्ज़-ए-तमन्ना जा कर

हम तुझे मना तो करते नहीं जाने से 'फ़राज़'
जा उसी दर पे मगर हाथ ना फैला जा कर

- अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ - नहीं जो दिल में जगह



                           (5)

          नहीं जो दिल में जगह तो नज़र में रहने दो

         नहीं जो दिल में जगह तो नज़र में रहने दो
           मेरी हयात को अपने असर में रहने दो

           कोई तो ख़्वाब मेरी रात का मुक़द्दर हो
          कोई तो अक्स मेरी चश्म-ए-तर में रहने दो

         मैं अपनी सोच को तेरी गली मैं छोड़ आया
          तो अपनी याद को मेरे हुनर में रहने दो

          ये मंजिलें तो किसी और का मुक़द्दर हैं
         मुझे बस अपने जूनून के सफ़र में रहने दो

        हकीक़तें तो बहुत तल्ख़ हो गयी हैं "फ़राज़"
         मेरे वजूद को ख़्वाबों के घर में रहने दो

                  - अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ - सिलसिले तोड़ गया वो सभी

(4)

 सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते 


सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते

शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते

जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते

उसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते

- अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ - क्यूँ तबीअत कहीं

( 3 )

क्यूँ तबीअत कहीं

क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं
दोस्ती तो उदास करती नहीं

हम हमेशा के सैर-चश्म सही
तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं


शब-ए-हिज्राँ भी रोज़-ए-बद की तरह
कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं


ये मोहब्बत है, सुन, ज़माने, सुन!
इतनी आसानियों से मरती नहीं


जिस तरह तुम गुजारते हो फ़राज़
जिंदगी उस तरह गुज़रती नहीं

 - अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ - इस से पहले

( 2 )

इस से पहले

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ

- अहमद फ़राज़

 क़बा = ड्रेस dress

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अहमद फ़राज़ - रंजिश ही सही

( 1 )

रंजिश ही सही

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही, फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है, तो ज़माने के लिए आ

एक उमर से हूँ लज्ज़त-ए-गिरया से भी महरूम
ए राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
यह आखिरी शमाएं भी बुझाने के लिए आ

- अहमद फ़राज़

शब्दार्थ:

1.    पिन्दार-ए-मोहब्बत  = प्रेम का गर्व
2.    मरासिम =  प्रेम-व्यवहार
3.    रस्मों-रहे =  सांसारिक शिष्टाचार
4.    लज़्ज़त-ए-गिरिया = रोने का स्वाद
5.    महरूम = वंचित
6.    राहत-ए-जाँ  = प्राणाधार
7.    दिल-ए-ख़ुशफ़हम  = किसी की ओर से अच्छा विचार रखने वाला मन

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