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सूरदास - तुम मेरी राखो लाज हरि

(15)

तुम मेरी राखो लाज हरि

तुम जानत सब अन्तर्यामी

करनी कछु ना करी

तुम मेरी राखो लाज हरि


अवगुन मोसे बिसरत नाहिं

पलछिन घरी घरी

सब प्रपंच की पोट बाँधि कै

अपने सीस धरी

तुम मेरी राखो लाज हरि


दारा सुत धन मोह लिये हौं

सुध-बुध सब बिसरी

सूर पतित को बेगि उबारो

अब मोरि नाव भरी

तुम मेरी राखो लाज हरि

-  सूरदास

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सूरदास - चरन कमल बंदौ हरि राई

(14)

चरन कमल बंदौ हरि राई

 
चरन कमल बंदौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई॥

सूरदास

भावार्थ :-- 

जिस पर श्रीहरि की कृपा हो जाती है, उसके लिए असंभव भी संभव हो जाता है। लूला-लंगड़ा मनुष्य पर्वत को भी लांघ जाता है। अंधे को गुप्त और प्रकट सबकुछ देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। बहरा सुनने लगता है। गूंगा बोलने लगता है कंगाल राज-छत्र धारण कर लेता हे। ऐसे करूणामय प्रभु की पद-वन्दना कौन अभागा न करेगा।
 
* राई  = राजा
* पंगु = लंगड़ा
* लघै = लांघ जाता है, पार कर जाता है
* मूक = गूंगा
* रंक = निर्धन, गरीब, कंगाल
* छत्र धराई = राज-छत्र धारण करके
* तेहि = तिनके
* पाई = चरण

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सूरदास - अंखियाँ हरि दरसन की प्यासी

(13)

अंखियाँ हरि दरसन की प्यासी।



अंखियाँ हरि दरसन की प्यासी।

देख्यौ चाहति कमलनैन कौ
, निसि-दिन रहति उदासी।।

आए ऊधै फिरि गए आँगन
,डारि गए गर फांसी।

केसरि तिलक मोतिन की माला
, वृन्दावन के बासी।।

काहू के मन को कोउ न जानत
, लोगन के मन हांसी।

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ
, करवत लैहौं कासी।।

सूरदास

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