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दुष्यंत कुमार - फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

(14)


 फिर कर लेने दो प्यार प्रिये 


अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

- दुष्यंत कुमार

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दुष्यंत कुमार - धर्म

(13)

धर्म

तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा

मैंने पी लिया
,
छोटी सी एक ख़ुशी

अधरों में आई

मैंने उसको फैला दिया
,
मुझको सन्तोष हुआ

और लगा
–-
हर छोटे को

बड़ा करना धर्म है ।

दुष्यंत कुमार

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दुष्यंत कुमार - विदा के बाद प्रतीक्षा

(12)

विदा के बाद प्रतीक्षा

परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर

कमरे का फर्नीचर सजाकर

और स्वागत के शब्दों को तोलकर

टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ

और देखता रहता हूँ मैं।
सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती

पिघले तारकोल में

हवा तक चिपक जाती है बहती बहती
,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से

एक शब्द नही कहता हूँ मैं।
सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ

जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में

उनके बारे में सोचता हूँ

कितनी अजीब बात है कि आज भी

प्रतीक्षा सहता हूँ।
 -  दुष्यंत कुमार
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