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मजरूह सुल्तानपुरी - हम हैं मत'अ-ए-कूचा-ओ-बाज़ार

( 3 )

हम हैं मत'अ-ए-कूचा-ओ-बाज़ार


हम हैं मत'अ-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह


इस कूए तिशनगी में बोहत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह


दिल तो कहीं है मगर दिल के आसपास
फिरती है कोई शै निगाह-ए-यार की तरह


सीधी है राह-ए-शौक़ पर यूं ही कहीं कहीं
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह


मजरूह लिख रहे हैं वोह अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनाहगार की तरह

 - मजरूह सुलतानपुरी


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मजरूह सुल्तानपुरी - जला के मशाल-ए- जाँ

( 2 )

जला के मशाल-ए- जाँ


जला के मशाल-ए- जाँ हम जुनूं सिफात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले


दयार-ए-शाम नहीं, मंजिल-ए-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले


हुआ असीर कोई हम-नवा तो दूर तलक
ब-पास-ए-तर्ज़-ए-नवा हम भी साथ साथ चले


सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चिराग
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले


बचा के लाये हम ऐ यार फिर भी नकद-ए-वफ़ा
अगर-चे लुटते हुए रह्ज़नों के हाथ चले


फिर आई फसल की मानिंद बर्ग-ऐ-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासिलात चले


बुला ही बैठे जब अहल-ए-हरम तो ऐ मजरूह
बगल मैं हम भी लिए एक सनम का हाथ चले

- मजरूह सुल्तानपुरी


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मजरूह सुलतानपुरी - मुझे सहल हो गई मंज़िलें

( 1 )

मुझे सहल हो गई मंज़िलें

मुझे सहल हो गई मंज़िलें, वह हवा के रुख़ भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग़ राह में जल गए

वह लजाए मेरे सवाल पे कि उठा सके न झुका के सर
उड़ी ज़ुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज़ मचल गए

वही बात जो न वो कह सके, मेरे शे'अर-ओ-नग़्मा में आ गई
वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दह-ए-शराब में ढल गए

वही आस्तां है वही अश्क है वही आस्तीं
दिल-ए-ज़ार तू भी तो बदल कि जहां के तौर बदल गए

तुझे चश्म-ए-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज़्म है
तुझे चश्म-ए-मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गए

मेरे काम आ गईं आख़िरश यही काविशें, यही गर्दिशें
बढी इस क़दर मेरी मज़िलें कि क़दम के ख़ार निकल गए

 - मजरूह सुल्तानपुरी

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