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अहमद फ़राज़ - ख़्वाब मरते नहीं

(10)

ख़्वाब मरते नहीं

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा  हुए तो बिखर जाएँगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएँगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं  हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नहीं
रोशनी और नवा के अलम
मक़्तलों  में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़  हैं
ख़्वाब तो नूर  हैं
ख़्वाब सुक़रात  हैं
ख़्वाब मंसूर  हैं.

 - अहमद फ़राज़


शब्दार्थ:

1.    रेज़ा-रेज़ा =  कण-कण
2.    नवा =  आवाज़
3.    मक़्तलों  = वधस्थल
4.    हर्फ़ = अक्षर
5.    नूर = प्रकाश
6.    सुक़रात  =  जिन्हें सच कहने के लिए ज़ह्र का प्याला पीना पड़ा था
7.    मंसूर  =  एक वली(महात्मा) जिन्होंने ‘अनलहक़’ (मैं ईश्वर हूँ) कहा था और इस अपराध के लिए उनकी गर्दन काट डाली गई थी
              
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