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अहमद फ़राज़ - चलो ये इश्क़ नहीं

 (7)

 चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है

चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है

तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है

मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी
न वो सख़ी न तुझे माँगने की आदत है

विसाल में भी वो ही है फ़िराक़ का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है

ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर उसे सोचने की आदत है

ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है


-   अहमद फ़राज़


शब्दार्थ:

1. ज़ाया = व्यर्थ

2. महरूमी = वंचितता

3. सख़ी = दानवीर

4. विसाल = मिलन

5. फ़िराक़ = जुदाई

6. ना-सुबूर =  ना-समझ
                
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