(11)
हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं
हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं
की इबादत भी तो वो जिस की जज़ा कोई नहीं
ये भी वक़्त आना था अब तू गोश-बर- आवाज़ है
और मेरे बरबते-दिल में सदा कोई नहीं
आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
कौन मानेगा के हम में बेवफ़ा कोई नहीं
वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्शे-पा कोई नहीं
ख़ुद को यूँ महसूर कर बैठा हूँ अपनी ज़ात में
मंज़िलें चारों तरफ़ है रास्ता कोई नहीं
कैसे रस्तों से चले और किस जगह पहुँचे "फ़राज़"
या हुजूम-ए-दोस्ताँ था साथ या कोई नहीं
- अहमद फ़राज़
शब्दार्थ:
1. जज़ा = प्रतिफल
2. गोश-बर- आवाज़ = आवाज़ पर कान लगाए हुए
3. बरबते-दिल = सितार जैसा एक वाद्य यंत्र
4. सदा = आवाज़्
5. नक़्शे-पा = पद-चिह्न
6. महसूर = घिरा हुआ
7. ज़ात = अस्तित्व
8. हुजूम-ए-दोस्ताँ = दोस्तों का समूह
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