कबीर के दोहे (301- 400)
सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।
तिल इक घर मैं संचरे , तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥
तिल इक घर मैं संचरे , तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।
मैमता घूमत रहै , नाहि तन की सार ॥ 302 ॥
मैमता घूमत रहै , नाहि तन की सार ॥ 302 ॥
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का , बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥
पाका कलस कुंभार का , बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।
सिर सौंपे सोई पिवै , नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥
सिर सौंपे सोई पिवै , नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रुष ज्यूं , घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥
जवासा के रुष ज्यूं , घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।
सतगुरु की कृपा भई , नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥
कबीर माया पापरगी , फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या , गया कबीर काटि ॥ 308 ॥
सतगुरु की कृपा भई , नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥
कबीर माया पापरगी , फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या , गया कबीर काटि ॥ 308 ॥
कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छांड़ि करि , करै मानि की आस ॥ 309 ॥
पारब्रह्म पति छांड़ि करि , करै मानि की आस ॥ 309 ॥
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।
और पखेरू पी गये , हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥
और पखेरू पी गये , हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि धारि जिता बाधावणा , तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥
जिहि धारि जिता बाधावणा , तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।
मानि बड़े मुनियर मिले , मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥
मानि बड़े मुनियर मिले , मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।
जाने-बूझै कुछ नहीं , यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥
जाने-बूझै कुछ नहीं , यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
बावन आषिर सोधि करि , ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥
बावन आषिर सोधि करि , ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।
राम-नाम सूं प्रीती करि , भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥
राम-नाम सूं प्रीती करि , भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां , गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥
सो तत नांव न जाणियां , गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।
पार ब्रह्म नेड़ा रहै , पल में करै निहाल ॥ 317 ॥
पार ब्रह्म नेड़ा रहै , पल में करै निहाल ॥ 317 ॥
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।
दिल थे दीन बिसारियां , करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥
दिल थे दीन बिसारियां , करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।
तन-मन तापर वारहुँ , जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥
तन-मन तापर वारहुँ , जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदै में सांच है , ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥
जाके हिरदै में सांच है , ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥
खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।
देख पराई चूपड़ी , जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥
देख पराई चूपड़ी , जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥
साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।
जाणैंगा रे जीवएगा , मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥
जाणैंगा रे जीवएगा , मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।
कबीर मूल निकंदिया , कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥
कबीर मूल निकंदिया , कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया , यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥
सूवै सैंबल सेविया , यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥
जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।
राधू प्रतषि देव है , नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥
राधू प्रतषि देव है , नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥
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कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसै , तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥
हिरदा भीतर हरि बसै , तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा , तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥
दसवां द्वारा देहुरा , तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥
मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुक्ति का , वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥
वो है दाता मुक्ति का , वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥
कबीर संगति साधु की , बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥
कबीर संगति साधु की , बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।
धीर बौठि चपेटसी , यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥
धीर बौठि चपेटसी , यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥
जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।
पहली था दिखाइ करि , उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥
पहली था दिखाइ करि , उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।
ताकि संगति राम जी , सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥
ताकि संगति राम जी , सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ , नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥
नहिंतर बेगि उठाइ , नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।
राम सरीखे जन मिले , तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥
राम सरीखे जन मिले , तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।
जो जैसी संगति करै , सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥
जो जैसी संगति करै , सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥
कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।
जाइ मिलै जब गंग से , तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥
जाइ मिलै जब गंग से , तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।
ताली पीटै सिरि घुनै , मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥
ताली पीटै सिरि घुनै , मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भुजगं मुख , एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥
कदली-सीप-भुजगं मुख , एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते णर कदे न नीपजौ , ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥
काजल केरी कोठड़ी , तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की , पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥
ते णर कदे न नीपजौ , ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥
काजल केरी कोठड़ी , तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की , पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला , सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥
पवनां बेगि उतावला , सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरी फिल करूँ , यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
जोगी फेरी फिल करूँ , यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप संसार है , भूकन दे झक मार ॥ 344 ॥
श्वान रूप संसार है , भूकन दे झक मार ॥ 344 ॥
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये , जो पूरन सुख हेत ॥ 345 ॥
गुरु चरनन चित लाइये , जो पूरन सुख हेत ॥ 345 ॥
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।
खाली हाथों वह गये , जिनके लाख करोर ॥ 346 ॥
खाली हाथों वह गये , जिनके लाख करोर ॥ 346 ॥
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे , तहीं हमारा ध्यान ॥ 347 ॥
निरगुन सरगुन के परे , तहीं हमारा ध्यान ॥ 347 ॥
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले , तहाँ भानु परगट भये॥ 348 ॥
हर तलाब में कमल खिले , तहाँ भानु परगट भये॥ 348 ॥
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा , रामे कौन निहोरा ॥ 349 ॥
जो कासी तन तजै कबीरा , रामे कौन निहोरा ॥ 349 ॥
कबीरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय ।
रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ॥ 350 ॥
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जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास ।
जो है जाको भावता, सो ताही के पास ॥ 351॥
प्रीतम के पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस ।
तन में मन में नैन में, ताको कहा सँदेस ॥ 352 ॥
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।
विष की क्यारी बोइ करि , लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ , पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥
कहै कबीर कैसे तिरूँ , पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहीं चालै पीठि दे , अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥
जबहीं चालै पीठि दे , अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै , तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥
पाणी में घीव नीकसै , तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।
राजा राणा छत्रपति , सावधान किन होइ ॥ 357 ॥
राजा राणा छत्रपति , सावधान किन होइ ॥ 357 ॥
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।
ए पुर पाटन , ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥
ए पुर पाटन , ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन , गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥
एकै हरि के नाव बिन , गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के , चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥
बिन रखवाले बाहिरा , चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरै , चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥
इत के भये न उत के , चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥
बिन रखवाले बाहिरा , चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरै , चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥
कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी , कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥
ना जाणै कहाँ मारिसी , कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।
गाहक राजा राम है , और न नेडा आइ ॥ 363 ॥
गाहक राजा राम है , और न नेडा आइ ॥ 363 ॥
उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन , बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥
एकै हरि के नाव बिन , बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥
कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ , घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ , घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी , रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥
कब लग राखौ हे सखी , रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥
कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहरयां हरि मिलै , तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥
माला पहरयां हरि मिलै , तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥
माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ ।
मन माला को फैरता , जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥
मन माला को फैरता , जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥
कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये , जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥
मन को काहे न मूंडिये , जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥
माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
माथौ मूँछ मुंडाइ करि , चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥
माथौ मूँछ मुंडाइ करि , चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥
बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि , दगहया अनेक ॥ 371 ॥
स्वाँग पहरि सो रहा भया , खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥
छापा तिलक बनाइ करि , दगहया अनेक ॥ 371 ॥
स्वाँग पहरि सो रहा भया , खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसारयो भेष में , बूड़े काली धार ॥ 374 ॥
अलष बिसारयो भेष में , बूड़े काली धार ॥ 374 ॥
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।
रैणि न आवै नींदड़ी , अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥
रैणि न आवै नींदड़ी , अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥
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सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ , साध न चलै जमात ॥ 376 ॥
लालों की नहि बोरियाँ , साध न चलै जमात ॥ 376 ॥
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की , हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥
कह कबीर ता साध की , हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै , संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥
विषिया सूं न्यारा रहै , संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये , तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥
जतन-जतन करि दाबिये , तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै , जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥
कबीर बिचारा क्या कहै , जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।
तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥
तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥
पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं , ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥
चित चकमक लागै नहीं , ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥
फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ , सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥
जिहि घटि मेरा साँइयाँ , सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।
तास पटेतर ना तुलै , हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥
तास पटेतर ना तुलै , हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥
जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर भड़धट सारषे , भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥
ते घर भड़धट सारषे , भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥
कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न उपजै , सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥
जिहिं कुल दास न उपजै , सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।
वा माँग सँवारे पील कौ , या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥
वा माँग सँवारे पील कौ , या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया , बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥
मोट चून मैदा भया , बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥
दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के , जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥
सदा अजंदी राम के , जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥
कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है , दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥
यहु सीतल बहु तपति है , दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै , जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥
अण्च्यंत्या हरिजी करै , जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका , सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका , सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥
रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि , ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥
दिल मंदि मैं पैसि करि , ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥
कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं , देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥
हरि बिन अपना कोउ नहीं , देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥
मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं , मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥
कहै कबीर रघुनाथ सूं , मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया , जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥
ए सबहीं अहला गया , जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै , जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥
साईं सूं सनमुख रहै , जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम-क्रोध सूं झूझणा , चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥
काम-क्रोध सूं झूझणा , चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥
कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले , दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥
पंच पयादा पाड़ि ले , दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥
जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥
- कबीर दास
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बालक नामदेव की अकिंचन भक्ति से मूर्ति स्वरुप भगवान् को भी प्रकट होना पड़ा!!
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