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कबीर के दोहे (201-300)




 कबीर के दोहे - (201 - 300)
ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना
, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201
तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे
, सूर कहावै सोय 202
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब विधि पाइये
, जो मन जोगी होय ॥ 203
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश
, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े
, बहुरि न लागे डार ॥ 205
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ
, गये अचम्भा कौन ॥ 206
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सीचें सौ घड़ा
, ॠतु आए फल होय ॥ 207
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै
, धोये बास न जाय ॥ 208
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन
, मुक्ति कैसे होय 209
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का
, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा
, ज्यों सारा परभात ॥ 211
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली
, पीस खाय संसार 212
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले
, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर
, चाहे बन मे जाय ॥ 214
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबन्ध की
, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में
, बूझै बिरला कोय ॥ 216
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से
, तुझे धनी से काम ॥ 217
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब
, निकले मुँह की बात 218
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पँछी को छाया नहीं
, फल लागे अति दूर 219
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते
, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो
, ता ठग को आदेश ॥ 221
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी
, कैसे लागे रंग ॥ 222
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे
, सन्मुख भागे सोय ॥ 223
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु
, कछु न आवे हाथ ॥ 224
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।
फूल-फूल चुन लिए
, काल हमारी बार ॥ 225
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मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना
, जो शब्द बोय की होय ॥ 226
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुँई धरे
, तब बैठें घर माहिं ॥ 227
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो सो लेइले
, उठी जात है पैंठ ॥ 228
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।
नैन न आवे नीदरौं
, अलग न आवे भास ॥ 229
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अनमोल था
, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधु सगं में
, सो बैकुंठ न होय 231
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय ।
कह कबीर तहँ जाइये
, साधु संग जहँ होय ॥ 232
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय ।
ज्यों मेहँदी के पात में
, लाली रखी न जाय ॥ 233
साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा वा देश को
, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234
संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को
, कबहुँ न आवे चूक 235
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख
, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236
लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं ।
एक दिन ऐसा होयगा
, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237
हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह ।
सूखा काठ न जान ही
, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238
ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार ।
आय कबीर फिर गया
, फीका है संसार ॥ 239
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह ।
निसि दिन दरशन शाधु को
, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240
क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात ।
कहा विष्णु का घटि गया
, जो भुगु मारीलात ॥ 241
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए
, हौंस रही मन माहिं ॥ 242

बलिहारी गुर आपणौ
, घौंहाड़ी कै बार ।
जिनि भानिष तैं
देवता, करत न लागी बार ॥ 243
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यू बूड़े धार में
, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।
बरस्या बादल प्रेम का
, भींजि गया अब अंग ॥ 245
कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वाँग जती का पहरि करि
, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै
, तो भी सस्ता जान ॥ 247
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई
, जित देखौं तित तू 248
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं
, कहै कौन सू बाप ॥ 249
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां
, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250
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कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन
, संधे संधि मिलाइ ॥ 251
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो
, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ
253

यह तन जालों मसि करों
, लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक
की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी
, कैहरि ही पास गयां ॥ 255
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं
, कब मुख देख पठिउं ॥ 256
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या
, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै
, कै साईं के चित्त 258
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा
, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये
, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे ।
दुखिया दास कबीर है
, जागै अरु रौवे ॥ 261
परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ ।
सो बूटी पाऊँ नहीं
, जातैं जीवनि होइ 262
पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ ।
लोभ-मिठाई हाथ दे
, आपण गयो भुलाइ ॥ 263
हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान ।
काम क्रोध त्रिष्णं तजै
, तोहि मिलै भगवान ॥ 264

जा कारणि में ढ़ूँढ़ती
, सनमुख मिलिया आइ ।
धन मैली पिव
ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265
पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई ।
आजहूं बेरा समंद मैं
, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266
दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ ।
हरि जैसा है तैसा रहो
, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267
भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं
न दीठ ॥ 268
कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ ।
एक तै सब होत है
, सब तैं एक न होइ ॥ 269
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्मा
, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी
, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271
कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत ।
जिन दिल बांध्या एक सूं
, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272
जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी
निज देव ॥ 273
पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै
, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274
कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।
कुबुध्दि न जीव की
, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275
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भगति बिगाड़ी कामियां
, इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा
खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276
परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय
, परगट होइ दिवानि ॥ 277
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै
, अति समूला जाहिं ॥ 288
ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।
ताथैं संसारी भला
, मन मैं रहै डरना ॥ 289
कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा
, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।
राज-दुबारा यौं फिरै
, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291
स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।
राम-नाम काठें रह्मा
, करै सिषां की आंस ॥ 292
इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।
    स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो
, सिर यो न एको काम ॥ 293

ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा
, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा
, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295
कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई ।
दैंहि पईसा ब्याज़ को
, लेखां करता जाई 296

कबीर इस संसार कौ
, समझाऊँ कै बार ।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर
या चाहे पार ॥ 297
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ ।
रामहि राम जपतंडां
, काल घसीटया जाइ ॥ 298
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि ।
फिरि प्रमोधै आन कौं
, आपण समझे नाहिं ॥ 299
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या
, चेत न देखै भ्रम ॥ 300
 - कबीर दास
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