कबीर के दोहे - (401 - 500)
अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर ।
सिर साहिबा कौ सौंपता , सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥
सिर साहिबा कौ सौंपता , सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार ।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि , भली मचाई मार ॥ 402 ॥
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि , भली मचाई मार ॥ 402 ॥
कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ ।
जब लग आस सरीर की , तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥
जब लग आस सरीर की , तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥
सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि ।
जे सिर दीया हरि मिलै , तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥
जेते तारे रैणि के , तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥
जे सिर दीया हरि मिलै , तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥
जेते तारे रैणि के , तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥
आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ ।
अकथ कहाणी प्रेम की , कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥
अकथ कहाणी प्रेम की , कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥
जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ ।
मरनैं पहली जे मरै , जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥
मरनैं पहली जे मरै , जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥
कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर ।
तब पैंडे लागा हरि फिरै , कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥
तब पैंडे लागा हरि फिरै , कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥
रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान ।
ऐसा जे जन है रहै , ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥
ऐसा जे जन है रहै , ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥
कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास ।
कबीर ऐसैं होइ रक्षा , ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥
कबीर ऐसैं होइ रक्षा , ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥
अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ ।
अपना बाना वाहिया , कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥
अपना बाना वाहिया , कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥
जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई ।
दरिगह तेरी सांइयाँ , जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥
दरिगह तेरी सांइयाँ , जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥
साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार ।
बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥
बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥
झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार ।
आगै-पीछै झलमाई , राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥
आगै-पीछै झलमाई , राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥
एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
औरन को सीतल करै , आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥
कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार ।
तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥
औरन को सीतल करै , आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥
कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार ।
तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥
दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥
कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूँ खिसै , चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥
बस्तर बासन सूँ खिसै , चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥
बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत ।
तेरी बारी रे जिया , नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥
तेरी बारी रे जिया , नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥
पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि ।
जोड़ी बिछटी हंस की , पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥
जोड़ी बिछटी हंस की , पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥
निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय ।
बिन पाणी बिन सबुना , निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥
बिन पाणी बिन सबुना , निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥
गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि ।
डरता पाणी जा पीऊं , मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥
डरता पाणी जा पीऊं , मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥
जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ै , जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥
जो चिणियां सो ढहि पड़ै , जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥
सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ ।
पष छाँड़ै निरपष रहै , सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥
पष छाँड़ै निरपष रहै , सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ ।
कुसबद तौ हरिजन सहै , दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥
कुसबद तौ हरिजन सहै , दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥
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नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि ।
जो त्रिषावन्त होइगा , सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥
कबीर सिरजन हार बिन , मेरा हित न कोइ ।
गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥
जो त्रिषावन्त होइगा , सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥
कबीर सिरजन हार बिन , मेरा हित न कोइ ।
गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥
हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ ।
ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥
ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥
सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं ।
आपे ही बहि जाहिंगे , जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥
आपे ही बहि जाहिंगे , जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥
क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि ।
तुम देखत ओगुन करौं , कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥
तुम देखत ओगुन करौं , कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥
सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार ।
पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥
पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥
॥ गुरु के विषय में दोहे ॥
गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान ।
बहुतक भोदूँ बहि गये , राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥
बहुतक भोदूँ बहि गये , राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥
गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम ।
कीट न जाने भृगं को , गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥
कीट न जाने भृगं को , गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम-जनम का मोरचा , पल में डारे धोय ॥ 434 ॥
जनम-जनम का मोरचा , पल में डारे धोय ॥ 434 ॥
गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त ।
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त हैं , आवागमन नशाय ॥ 436 ॥
कहैं कबीर सो सन्त हैं , आवागमन नशाय ॥ 436 ॥
जो गुरु बसै बनारसी , सीष समुन्दर तीर ।
एक पलक बिसरे नहीं , जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥
गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान ।
तीन लोक की सम्पदा , सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥
तीन लोक की सम्पदा , सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥
अन्तर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।
कहैं कबीर ता दास को , तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥
कहैं कबीर ता दास को , तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥
लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय ।
शब्द तुरी बसवार है , छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥
शब्द तुरी बसवार है , छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर ।
आठ पहर निरखता रहे , गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥
आठ पहर निरखता रहे , गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥
गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त ।
प्रेम बिना ढिग दूर है , प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥
प्रेम बिना ढिग दूर है , प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को , गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥
गुरु बिन लखै न सत्य को , गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं ।
उन्हीं कूँ परनाम करि , सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥
उन्हीं कूँ परनाम करि , सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥
गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और ।
सुख सम्पति की कह चली , नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥
सुख सम्पति की कह चली , नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥
सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान ।
शब्द सहै सम्मुख रहै , निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥
शब्द सहै सम्मुख रहै , निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास ।
गुरु सेवा ते पाइये , सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥
गुरु सेवा ते पाइये , सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥
अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान ।
ताको जम न्योता दिया , होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥
ताको जम न्योता दिया , होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय ।
कहैं कबीर ता दास का , पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥
कहैं कबीर ता दास का , पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥
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मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है , मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥
मूल नाम गुरु वचन है , मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥
पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान ।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥
सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम ।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन , कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन , कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥
कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव ।
तजि अहं गुरु चरण गहु , जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥
तजि अहं गुरु चरण गहु , जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥
कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार ।
तीमिर तौ नाशै नहीं , बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥
तीमिर तौ नाशै नहीं , बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत ।
ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥
ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥
तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान ।
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन , कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन , कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥
जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि ।
शीष भाव सुत्त जानिये , सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥
शीष भाव सुत्त जानिये , सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥
भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि ।
गुरु बिन कौन उबारसी , भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥
गुरु बिन कौन उबारसी , भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥
करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय ।
बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥
बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥
सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय ।
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल ।
अपनी और निबाहिये , सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥
अपनी और निबाहिये , सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥
लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय ।
कहैं कबीर गुरु साबुन सों , कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥
कहैं कबीर गुरु साबुन सों , कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥
राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट ।
कहैं कबीर क्यों उबरै , काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥
कहैं कबीर क्यों उबरै , काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय ।
जल सो अरसां नहिं , क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥
जल सो अरसां नहिं , क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥
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॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥
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सत्गुरु तो सतभाव है , जो अस भेद बताय ।
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥
सत्गुरु तो सतभाव है , जो अस भेद बताय ।
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥
सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज ।
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये , अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥
तीन लोक न पाइये , अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय ।
भ्रम का भांड तोड़ि करि , रहै निराला होय ॥ 469 ॥
भ्रम का भांड तोड़ि करि , रहै निराला होय ॥ 469 ॥
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय ।
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥
जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव ।
कहै कबीर सुन साधवा , करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥
कहै कबीर सुन साधवा , करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर ।
अब देवे को क्या रहा , यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥
अब देवे को क्या रहा , यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय ।
कहै कबीर क्या कीजिये , और मता मन जाय ॥ 473 ॥
कहै कबीर क्या कीजिये , और मता मन जाय ॥ 473 ॥
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान ।
तामें निपट अनूप है , सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥
तामें निपट अनूप है , सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय ।
ताकूँ सतगुरु का करे , जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥
ताकूँ सतगुरु का करे , जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥
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बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे ।
ब्रह्मा-विष्णु , महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥
ब्रह्मा-विष्णु , महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय ।
बिन सतगुरु पावै नहीं , कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥
बिन सतगुरु पावै नहीं , कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥
डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय ।
लोभ नदी की धार में , कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥
लोभ नदी की धार में , कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु ।
मेटो भव को अंक , आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥
मेटो भव को अंक , आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥
करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है ।
होये सब जिव काज , निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥
होये सब जिव काज , निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत ।
करम भरम सब त्यागि के , चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥
करम भरम सब त्यागि के , चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे ।
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥
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॥ गुरु पारख पर दोहे ॥
॥ गुरु पारख पर दोहे ॥
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जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन ।
अन्धे को अन्धा मिला , राह बतावे कौन ॥ 483 ॥
अन्धे को अन्धा मिला , राह बतावे कौन ॥ 483 ॥
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध ।
अन्धे को अन्धा मिला , पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥
अन्धे को अन्धा मिला , पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव ।
दोनों बूड़े बापुरे , चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥
दोनों बूड़े बापुरे , चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥
आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय ।
दोनों बूडछे बापुरे , निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥
दोनों बूडछे बापुरे , निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में , फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥
भवसागर के जाल में , फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥
पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख ।
स्वाँग यती का पहिनि के , घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥
स्वाँग यती का पहिनि के , घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥
कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल ।
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव ।
सोइ गुरु नित बन्दिये , शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥
सोइ गुरु नित बन्दिये , शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये , त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥
सो गुरु झूठा जानिये , त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार ।
द्वार न पावै शब्द का , भटके बारम्बार ॥ 492 ॥
द्वार न पावै शब्द का , भटके बारम्बार ॥ 492 ॥
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं ।
दरिया सो न्यारा रहे , दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥
दरिया सो न्यारा रहे , दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥
कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार ।
पापी का पापी गुरु , यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥
पापी का पापी गुरु , यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय ।
शिष शोधे बिन सेइया , पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥
शिष शोधे बिन सेइया , पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥
सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय ।
चंचल से निश्चल भया , नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥
चंचल से निश्चल भया , नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥
गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश ।
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे , गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे , गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय ।
बिनु पद बिनु मरजाद नर , गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥
बिनु पद बिनु मरजाद नर , गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह ।
कै बूड़ौ कै ऊबरो , टका परदानी देह ॥ 499 ॥
कै बूड़ौ कै ऊबरो , टका परदानी देह ॥ 499 ॥
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास ।
अपने तन की सुधि नहीं , शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥
अपने तन की सुधि नहीं , शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥
- कबीर दास
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