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मजरूह सुल्तानपुरी - जला के मशाल-ए- जाँ

( 2 )

जला के मशाल-ए- जाँ


जला के मशाल-ए- जाँ हम जुनूं सिफात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले


दयार-ए-शाम नहीं, मंजिल-ए-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले


हुआ असीर कोई हम-नवा तो दूर तलक
ब-पास-ए-तर्ज़-ए-नवा हम भी साथ साथ चले


सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चिराग
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले


बचा के लाये हम ऐ यार फिर भी नकद-ए-वफ़ा
अगर-चे लुटते हुए रह्ज़नों के हाथ चले


फिर आई फसल की मानिंद बर्ग-ऐ-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासिलात चले


बुला ही बैठे जब अहल-ए-हरम तो ऐ मजरूह
बगल मैं हम भी लिए एक सनम का हाथ चले

- मजरूह सुल्तानपुरी


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