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मजरूह सुलतानपुरी - मुझे सहल हो गई मंज़िलें

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मुझे सहल हो गई मंज़िलें

मुझे सहल हो गई मंज़िलें, वह हवा के रुख़ भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग़ राह में जल गए

वह लजाए मेरे सवाल पे कि उठा सके न झुका के सर
उड़ी ज़ुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज़ मचल गए

वही बात जो न वो कह सके, मेरे शे'अर-ओ-नग़्मा में आ गई
वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दह-ए-शराब में ढल गए

वही आस्तां है वही अश्क है वही आस्तीं
दिल-ए-ज़ार तू भी तो बदल कि जहां के तौर बदल गए

तुझे चश्म-ए-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज़्म है
तुझे चश्म-ए-मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गए

मेरे काम आ गईं आख़िरश यही काविशें, यही गर्दिशें
बढी इस क़दर मेरी मज़िलें कि क़दम के ख़ार निकल गए

 - मजरूह सुल्तानपुरी

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