(6)
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ
ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ
इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़्त , नक़्श बेदीवार नहीं हूँ
अफ़सुर्दा हूँ इबारत से, दवा की नहीं हाजित
गम़ का मुझे ये जो’फ़ है, बीमार नहीं हूँ
वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ
यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ
अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ
- अकबर इलाहाबादी
शब्दार्थ:
1. तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला;
2. ज़ीस्त= जीवन;
3. लज़्ज़त= स्वाद;
4. ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर;
5. बेलौस= लांछन के बिना;
6. फ़क़्त= केवल;
7. नक़्श= चिन्ह, चित्र;
8. अफ़सुर्दा= निराश;
9. इबारत= शब्द, लेख;
10. हाजित(हाजत)= आवश्यकता;
11. जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता;
12. गुल= फूल;
13. ख़िज़ां= पतझड़;
14. ख़ार= कांटा;
15. महफ़ूज़= सुरक्षित;
16. इनायत= कृपा;
17. तलबगार= इच्छुक;
18. अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता;
19. क़ाफ़िर= नास्तिक;
20. दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला।
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