कबीर के दोहे - (801-900)
कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय ।
राम निकुल कुल भेटिया , सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥
राम निकुल कुल भेटिया , सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है , जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥
तब कुल की क्या लाज है , जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।
एका एकी राम सों , कै साधुन के संग ॥ 803 ॥
एका एकी राम सों , कै साधुन के संग ॥ 803 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।
कबीरा नैन निहारिया , नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥
कबीरा नैन निहारिया , नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन , जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥
एकहिं गुरु के नाम बिन , जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी , करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥
ते भी होते मानवी , करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान ।
टेढ़ा होकर चलते , करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥
टेढ़ा होकर चलते , करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय ।
ते सपने दीसे नहीं , देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥
ते सपने दीसे नहीं , देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन , बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥
कबीर गुरू की भक्ति बिन , बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है , जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥
कुल काकी लाजि है , जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है , चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥
तब कुल काको लाजि है , चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।
मेरी पग का पैखड़ा , मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥
मेरी पग का पैखड़ा , मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर ।
ऐसा लेखा मीच का , दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥
ऐसा लेखा मीच का , दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ ।
करम करीना बेचि के , उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥
करम करीना बेचि के , उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र ।
जैसे पर घर पाहुना , रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥
जैसे पर घर पाहुना , रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।
मन परतीत न ऊपजै , जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥
मन परतीत न ऊपजै , जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।
अटकेगा कहुँ बेलि में , तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥
अटकेगा कहुँ बेलि में , तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारिया , मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥
पाँच कुल्हाड़ी मारिया , मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय ।
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा , सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा , सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि ।
चलती बिरयाँ उठि चला , हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥
चलती बिरयाँ उठि चला , हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
कोई काहू का है नहीं , देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥
कोई काहू का है नहीं , देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
डरत रहै सो ऊबरे , गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥
डरत रहै सो ऊबरे , गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय ।
भय पारस है जीव को , निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥
भय पारस है जीव को , निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।
जब हिरदै से भय गया , मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥
जब हिरदै से भय गया , मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात ।
सुगन अगुन दोउ पाटला , तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥
सुगन अगुन दोउ पाटला , तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥
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बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा , नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥
तेरी बारी जीयरा , नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै , तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥
घर की नारी को कहै , तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु , धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु , धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै , जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥
आया लाभहिं कारनै , जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना , तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥
बाँझ हिलावै पालना , तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा , झूठा सब संघात ॥ 831 ॥
मात-पिता-सुत बान्धवा , झूठा सब संघात ॥ 831 ॥
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे , निज करनी कर याद ॥ 832 ॥
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥
अब पछितावा क्या करे , निज करनी कर याद ॥ 832 ॥
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो , तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥
जिहि जिहि डाबर धर करो , तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की , छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥
घड़ी जु पहुँची काल की , छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का , ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥
जैसा सपना रैन का , ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है , देह गेह धन राज ॥ 837 ॥
छाड़ि छाड़ि सब जात है , देह गेह धन राज ॥ 837 ॥
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े , बैठने लागे काग ॥ 838 ॥
सो घर भी खाली पड़े , बैठने लागे काग ॥ 838 ॥
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा , मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
ना जानूं कब जायगा , मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा , मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥
माया मद तोकूँ चढ़ा , मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता , केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥
ऊँचा चढ़ि कर देखता , केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले , खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥
जो समझै तो समझ ले , खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे , तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥
अविनाशी जो न मरे , तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका , अब को मरने जाय ॥ 844 ॥
मरना था तो मरि चुका , अब को मरने जाय ॥ 844 ॥
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये , तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥
अनेक बून्द खाली गये , तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है , कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥
गुरु का शब्द उछेद है , कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा , भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥
पड़ोसी की जो दशा , भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई , जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥
सत्य शब्द नहिं खोजई , जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है , कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥
तोको जाना दूर है , कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही , मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥
पाँच कुल्हाड़ी मारही , मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥
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आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये , अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥
सिर के केस उज्ज्वल भये , अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है , और सकल जमधार ॥ 852 ॥
कहैं कबीर सो बाँचि है , और सकल जमधार ॥ 852 ॥
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॥ काल के विषय मे दोहे ॥
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जोबन मिकदारी तजी , चली निशान बजाय ।
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥
जोबन मिकदारी तजी , चली निशान बजाय ।
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।
जिव जंजाले पड़ि रहा , दियरा दममा आय ॥ 854 ॥
जिव जंजाले पड़ि रहा , दियरा दममा आय ॥ 854 ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।
जगत् चबैना काल का , कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥
जगत् चबैना काल का , कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय ।
कहैं कबीर में क्या करूँ , कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥
कहैं कबीर में क्या करूँ , कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।
कहैं कबीर मैं का कहूँ , देखत न पतियाय ॥ 857 ॥
कहैं कबीर मैं का कहूँ , देखत न पतियाय ॥ 857 ॥
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै , जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥
जो चुने सो ढ़हि पड़ै , जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुवा , कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥
जरा मुई न भय मुवा , कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और ।
बिगरा काज सँभारि ले , करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥
बिगरा काज सँभारि ले , करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर ।
बिच के बासे बसि गया , काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥
बिच के बासे बसि गया , काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।
तेरे सिराने जम खड़ा , ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥
तेरे सिराने जम खड़ा , ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात ।
न जानों क्या होयेगा , ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥
न जानों क्या होयेगा , ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल ।
मरहट देखी डरपता , चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥
मरहट देखी डरपता , चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।
हाथों परबत लौलते , ते भी खाये काल ॥ 866 ॥
हाथों परबत लौलते , ते भी खाये काल ॥ 866 ॥
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।
मंझ महल से ले चला , ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥
मंझ महल से ले चला , ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥
चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू , गज बन्दा दरबार ॥
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा , हाथ लिये हाथियार ।
सबही यह तन देखता , काल ले गया मात ॥ 868 ॥
खिरकी खिरकी पाहरू , गज बन्दा दरबार ॥
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा , हाथ लिये हाथियार ।
सबही यह तन देखता , काल ले गया मात ॥ 868 ॥
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।
ज्यों का त्यों ही रहि गया , पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥
ज्यों का त्यों ही रहि गया , पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त ।
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै , त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै , त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले , का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥
ते मुनिवर धरती गले , का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।
जाको कोई जाने नहीं , जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥
जाको कोई जाने नहीं , जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृद्धपने आलस गयो , चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥
वृद्धपने आलस गयो , चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल ।
आवन-जावन होय रहा , ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥
आवन-जावन होय रहा , ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥
ताजी छूटा शहर ते , कसबे पड़ी पुकार ।
दरवाजा जड़ा ही रहा , निकस गया असवार ॥ 875 ॥
खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय ।
घाट जगाती क्या करै , सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥
घाट जगाती क्या करै , सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान ।
छाप बिना गुरु नाम के , साकट रहा निदान ॥ 877 ॥
छाप बिना गुरु नाम के , साकट रहा निदान ॥ 877 ॥
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि ।
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥
ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय ।
जारि बारि कोयला करे , जमते देखा सोय ॥ 879 ॥
जारि बारि कोयला करे , जमते देखा सोय ॥ 879 ॥
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार ।
कहैं कबीर कोइला करै , फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥
कहैं कबीर कोइला करै , फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय ।
काल पाय सबि बिनिश है , काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥
काल पाय सबि बिनिश है , काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।
हम चाले तु मचालिहौं , धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥
हम चाले तु मचालिहौं , धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय ।
जिन डाली हम केलि , सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥
जिन डाली हम केलि , सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।
सुर नर मुनि औ लोक सब , सात रसातल सेस ॥ 885॥
सुर नर मुनि औ लोक सब , सात रसातल सेस ॥ 885॥
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ ।
जन-जन को मन राखता , वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥
जन-जन को मन राखता , वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।
सो अब कहँ दीसै नहीं , छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥
सो अब कहँ दीसै नहीं , छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।
कहैं कबीर गहु ज्ञान को , छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥
कहैं कबीर गहु ज्ञान को , छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना , काल कहवै सोय ॥ 889 ॥
जेती मन की कल्पना , काल कहवै सोय ॥ 889 ॥
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॥ उपदेश ॥
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काल काम तत्काल है , बुरा न कीजै कोय ।
भले भलई पे लहै , बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
अनबोवे लुनता नहीं , बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥
अनबोवे लुनता नहीं , बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान ।
कहीं सुनी जुग जुग चली , आवागमन बँधान ॥ 892 ॥
कहीं सुनी जुग जुग चली , आवागमन बँधान ॥ 892 ॥
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा , संग न चले छदाम ॥ 893 ॥
चलती बिरिया रे नरा , संग न चले छदाम ॥ 893 ॥
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान ।
लेना होय सो लेई ले , यही गोय मैदान ॥ 894 ॥
लेना होय सो लेई ले , यही गोय मैदान ॥ 894 ॥
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह ।
आगे हाट न बानिया , लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥
आगे हाट न बानिया , लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह ।
निश्चय कर उपकार ही , जीवन का फल येह ॥ 896 ॥
निश्चय कर उपकार ही , जीवन का फल येह ॥ 896 ॥
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी , कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥
देह खेह होय जायगी , कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह ।
बहुरि न देही पाइये , अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥
बहुरि न देही पाइये , अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।
कहैं कबीर ता दास को , कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥
कहैं कबीर ता दास को , कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय ।
साकट जन औ श्वान को , फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥
साकट जन औ श्वान को , फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥
- कबीर दास
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So Wonderful quote
ReplyDeleteहिंदी में अर्थ भी दें। कई दोहे समझ नहीं आये जैसे,-
ReplyDeleteदीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ । पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥