कबीर के दोहे - (701-800)
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना , सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
कहैं कबीर सेवा बिना , सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी , तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥
यों जल छूटी माछरी , तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै , तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥
सिर ऊपर आरा सहै , तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये , आये सिर पर काल ॥ 704 ॥
लोक वेद दोनों गये , आये सिर पर काल ॥ 704 ॥
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं , ताते गयो पताल ॥ 705 ॥
शुक्र कही बलि ना करीं , ताते गयो पताल ॥ 705 ॥
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है , जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥
कबहुक धनी निवाजि है , जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में , सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥
कहैं कबीर संसार में , सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय , बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय , बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं , यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥
कहैं कबीर बिसरे नहीं , यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है , गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥
सावधान सम ध्यान है , गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी , आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥
सत्यवार परमारथी , आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका , सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥
सन्तोषी सुख दायका , सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता , कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥
लज्जावान अति निछलता , कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥
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॥ दासता पर दोहे ॥
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कबीर गुरु कै भावते , दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना , जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
कबीर गुरु कै भावते , दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना , जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की , तब लग दास न होय ॥ 716 ॥
जब लग आश शरीर की , तब लग दास न होय ॥ 716 ॥
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का , व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥
रंग न लागै का , व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै , मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै , मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो , काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥
कहैं कबीर वा दास सो , काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये , दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥
फिर फिर वाकूं बन्दिये , दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है , प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥
कहैं कबीर सो दास है , प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना , कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥
पानी के पीये बिना , कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥
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॥ भक्ति पर दोहे ॥
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भक्ति कठिन अति दुर्लभ , भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से , यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
भक्ति कठिन अति दुर्लभ , भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से , यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै , होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥
ऊँच-नीच धर अवतरै , होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥
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भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये , जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥
सरिता सोई सराहिये , जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै , निज मन समझो आय ॥ 727 ॥
और न कोई चढ़ि सकै , निज मन समझो आय ॥ 727 ॥
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों , ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥
सीस उतारे हाथ सों , ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो , पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥
प्रेम प्रीति की भक्ति जो , पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में , भेष जगत की आश ॥ 730 ॥
भक्त लीन गुरु चरण में , भेष जगत की आश ॥ 730 ॥
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये , मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥
बार-बार नहिं पाइये , मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा , कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥
मन को मैगल होय रहा , कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे , घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥
शब्द सनेही होय रहे , घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया , जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥
जिन-जिन आलस किया , जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं , महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥
बिना साँच पहुँचे नहीं , महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है , दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥
भक्ति भाव इक रूप है , दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं , होन चहत है दास ॥ 737 ॥
मन मनसा माजै नहीं , होन चहत है दास ॥ 737 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा , बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥
धुवाँ का सा धौरहरा , बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै , आवागमन नशाय ॥ 739 ॥
कहैं कबीर सतगुरु मिलै , आवागमन नशाय ॥ 739 ॥
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी , केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥
बिपति पड़े यों छाड़सी , केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में , भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥
करम जाल भौजाल में , भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै , निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥
कहैं कबीर वह क्यों मिलै , निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरैं , लेते गये अऊत ॥ 743 ॥
मायाधारी मसखरैं , लेते गये अऊत ॥ 743 ॥
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्वंद्वी की भक्ति है , निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥
निरद्वंद्वी की भक्ति है , निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते , भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥
सुमति गयी अति लोभ ते , भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची , ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥
भक्ति बिगारी लालची , ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का , रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥
देखा देखी भक्ति का , रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है , अधर धार की चोट ॥ 748 ॥
निराधार का खोल है , अधर धार की चोट ॥ 748 ॥
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे , शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥
जो कोई जन भक्ति करे , शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥
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और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के , भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥
कहैं कबीर पुकारि के , भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों , यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥
सुखदाई सब जीव सों , यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही , कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥
नीचे बाधिनि लुकि रही , कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥
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॥ चेतावनी ॥
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कबीर गर्ब न कीजिये , चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट , तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये , चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट , तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना , ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥
काल परौं भुंइ लेटना , ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस , खंखर भया पलास ॥ 757 ॥
टेसू फूला दिवस दस , खंखर भया पलास ॥ 757 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं , कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥
ना जानो कित मारि हैं , कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना , विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥
दिवस चारि का पेखना , विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना , अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥
दिवस चार का पेखना , अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर , राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥
सबही ऊभ पन्थ सिर , राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली , बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥
यह पुर पटृन यह गली , बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर , देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥
इस दिन तेरा छत्र सिर , देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की , कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥
कै सेवा करूँ साधु की , कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले , मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥
चेति सकै तो चेत ले , मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे , धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥
खेत बिचारा क्या करे , धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में , झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥
दिन दस के व्यवहार में , झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में , जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥
जीव परा बहू लूट में , जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे , गया बजावन हार ॥ 769 ॥
जन्त्र बिचारा क्याय करे , गया बजावन हार ॥ 769 ॥
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का , बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥
साँस नगारा कुँच का , बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं , क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥
केवट सो परचै नहीं , क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी , लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥
एक जु आया पारधी , लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये , बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥
हरूये-हरूये तरि गये , बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक , सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥
राजा राना राव एक , सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के , है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥
औसर चले बजाय के , है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥
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मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे , छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥
ऊजड़ जाय बसायेंगे , छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा , काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥
ऐसे ही जीव जायगा , काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला , ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥
कान पकरि के ले चला , ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया , आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥
सतगुरु शब्द बिसारिया , आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि , भये कबीर उदास ॥ 780 ॥
सब जग जरता देखि करि , भये कबीर उदास ॥ 780 ॥
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै , ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥
ऊपर ऊपर हल फिरै , ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया , लंका का सरदार ॥ 782 ॥
रावन जैसा चलि गया , लंका का सरदार ॥ 782 ॥
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी , ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥
काल अचानक मारसी , ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे , चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
अब पछितावा क्या करे , चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।
आज काल के करत ही , औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
आज काल के करत ही , औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी , दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥
मीच सुनेगी पापिनी , दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े , बैठने लागे काग ॥ 787 ॥
ते मन्दिर खाले पड़े , बैठने लागे काग ॥ 787 ॥
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े , रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥
वे मन्दिर खाले पड़े , रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन , जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥
एकहिं गुरु के नाम बिन , जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन , जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥
एक गुरु के नाम बिन , जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा , पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥
ना जानो क्या होयगा , पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया , ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥
मन माटी में मिल गया , ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे , चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥
आधा परवा ऊबरे , चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है , घर आवै तब जान ॥ 794 ॥
अजहुँ झोला बहुत है , घर आवै तब जान ॥ 794 ॥
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है , घर आवै तब जान ॥ 795 ॥
अजहुँ झोला बहुत है , घर आवै तब जान ॥ 795 ॥
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिना चार के कारने , फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥
दिना चार के कारने , फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि ।
घर तो साढ़े तीन हाथ , घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥
घर तो साढ़े तीन हाथ , घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया , कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥
टपका लागा फुटि गया , कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।
इत के भये न ऊत के , चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥
इत के भये न ऊत के , चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि ।
जिन पंथा तोहि चालना , सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥
जिन पंथा तोहि चालना , सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥
- कबीर दास
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Kabir Ke Dohe bahut hi behtreen hain....gyaanvardhak, great thoughts...
ReplyDeleteकबीर के दोहे आपको आपसे मिलाने का काम करते हैं।
ReplyDeleteसुंदर संकलन के लिए साधुवाद।
बहुत ही सुंदर संकलन है।
ReplyDeleteकबीर दास बहुत ही महान इंसान थे इन्होने अपने दोहो से सभी का मार्गदर्शन किया है
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