कबीर के दोहे - (501-600)
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते , दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥
कीच-कीच के धोवते , दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं , तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥
हरष शोष व्यापे नहीं , तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै , तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥
सीस दिये जो गुरु मिलै , तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी , कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥
कहैं कबीर मैक्ली गजी , कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥
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॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥
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शिष्य पुजै आपना , गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को , मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें , घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥
ताके सद्गुरु कहा करें , घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक ।
जासो हिरदा की कहूँ , सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥
जासो हिरदा की कहूँ , सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।
कीच-कीच के दाग को , कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥
कीच-कीच के दाग को , कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं , रहिये मन के माय ॥ 512 ॥
चतुराई रीझै नहीं , रहिये मन के माय ॥ 512 ॥
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे , परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥
बिना विचारे गुरु करे , परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।
जब सत को सतिया मिले , विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥
जब सत को सतिया मिले , विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै , वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥
जा देखै सुख उपजै , वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥
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॥ भक्ति के विषय मे दोहे ॥
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कबीर गुरु की भक्ति बिन , राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की , घास न डारै कोय ॥ 516 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूँकत फिरै , टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥
गली-गली भूँकत फिरै , टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी , फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥
सो तो होगी कूकरी , फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना , जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥
तेहि घर किसका चाँदना , जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै , कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥
सूखा काठ न जानिहै , कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई , पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥
माटी गलि पानी भई , पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे , उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥
सुधि-सुधि के हिरदे विधे , उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया , यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥
बूड़यो बाँस बड़ाइया , यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी , बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥
ऊसर बीज न उगसी , बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी , कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥
कहैं कबीर गुरु बेमुखी , कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥
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साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है , विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥
ताकि औषण मौन है , विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे , पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥
बिनु गुरु निगुरा जो रहे , पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई , हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥
बगुला परख न जानई , हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै , तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥
जो कौवा मठ हगि भरै , तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा , बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥
दो अच्छर गुरु बहिरा , बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै , रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥
एक गुवाड़े कदि बड़ै , रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के , सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥
कंचन कटोरा छाड़ि के , सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये , पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥
ताके संग न चलिये , पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै , सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥
टेक छाड़ि मानिक मिलै , सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये , तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥
कोटि जतन परमोघिये , तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।
देवतन से कुत्ता भला , नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥
देवतन से कुत्ता भला , नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं , मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥
भाव भक्ति समझयो नहीं , मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता , भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥
एक धरा में दो मता , भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी , वो रखवाला पास ॥ 539 ॥
वो तो होगी शूकरी , वो रखवाला पास ॥ 539 ॥
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला , ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥
साघु सो झगड़ा भला , ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा , काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥
जो होवै सूली सजा , काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये , पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥
अंक भरे भारि भेटिये , पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी , आलस मन से हानि ॥ 543 ॥
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी , आलस मन से हानि ॥ 543 ॥
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते , काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥
कबीर साधु दरश ते , काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये , कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥
यामें विलंब न कीजिये , कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते , उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥
कबीर साधु दरश ते , उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन , जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥
कहैं कबीरन सो भक्त जन , जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये , कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥
यामें देर न लाइये , कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो , कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥
कहै कबीर वा जीव सो , कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन , जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥
कहैं कबीर सो भक्तजन , जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये , कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥
यामें ढील न कीजिये , कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं , ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥
साधु दरश को जब चलैं , ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ , अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ , अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन , मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥
कहै कबीर सोई सन्तजन , मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ , जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ , जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को , देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥
कहै कबीर संतन को , देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए , कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥
यही सीख बुध लीजिए , कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये , यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥
साधु देत न सकुचिये , यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को , देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥
कहै कबीर सन्तन को , देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा , नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥
माथा का ग्रह उतरा , नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे , कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥
मन्द भाग मट्टी भरे , कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा , सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥
धूनी पानी साथरा , सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा , बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥
सो तो होसी चूह्रा , बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै , अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥
शीश नवावत ढ़हि परै , अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं , जर भरता संसार ॥ 566 ॥
जग में होते साधु नहिं , जर भरता संसार ॥ 566 ॥
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की , देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥
तपन बुझावै ओर की , देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की , मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥
कहै कबीर वा दास की , मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में , अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥
जीवन जस है जगन में , अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने , चारों धारी देह ॥ 570 ॥
परमारथ के कारने , चारों धारी देह ॥ 570 ॥
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने , साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥
परमारथ के कारने , साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले , परम सनेही साध ॥ 572 ॥
कहै कबीर वह कब मिले , परम सनेही साध ॥ 572 ॥
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली , ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥
चंदन की कुटकी भली , ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है , कह पारस का मोल ॥ 574 ॥
कहा साध की जाति है , कह पारस का मोल ॥ 574 ॥
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले , हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥
तासु पटतरा न तुले , हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥
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क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित , नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥
वह माँग सँवारे पीववहित , नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया , सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥
जो सुख सहजै पाईया , सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको , साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥
सिद्ध जु वारे आपको , साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥
कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन , राम सनेही सोय ॥ 579 ॥
कबीर शीतल सन्त जन , राम सनेही सोय ॥ 579 ॥
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै , बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥
षट दर्शन खटपट करै , बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई , तब लग काचा काम ॥ 581 ॥
जब लग साधु न सेवई , तब लग काचा काम ॥ 581 ॥
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं , सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥
गीता हूँ कि गत नहीं , सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले , प्राण देह में आन ॥ 583 ॥
शब्द सनेही ना मिले , प्राण देह में आन ॥ 583 ॥
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं , बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥
पान फूल छेड़े नहीं , बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस , गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥
चढ़े तो चाखै प्रेम रस , गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै , बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥
परमारथ राता रहै , बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया , जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया , जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै , साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥
अपने मत गाड़ा रहै , साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों , नेजा घालैं चोट ॥ 591
माथा बाँधि पताक सों , नेजा घालैं चोट ॥ 591
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है , और सेत का सेत ॥ 592 ॥
कोई विवेकी लाल है , और सेत का सेत ॥ 592 ॥
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का , साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥
सिंह न मारे मेढ़का , साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ॥ 595 ॥
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ॥ 595 ॥
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की , और चित्त विचार ॥ 596 ॥
आश एक गुरुदेव की , और चित्त विचार ॥ 596 ॥
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता , उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥
उपकारी निहकामता , उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही , सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥
छिमा ज्ञान सत भाखही , सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें , अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥
बाहर मिलते सों मिलें , अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत , धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
निर्विकार गम्भीर मत , धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
- कबीर दास
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