कबीर के दोहे - (601-700)
निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे , साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
विषया सो न्यारा रहे , साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै , उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
जो कोर्ठ आशा करै , उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ , तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
स्वल्पाहार भोजन करूँ , तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे , साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
डिंभ चाल करनी करे , साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में , रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
सदा शुद्ध आचरण में , रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता , कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
लज्जावान अति निछलता , कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते , भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
साधु दोऊ को पोषते , भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया , शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
मलय भुवंगय बेधिया , शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों , अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बालक केरि धाय ज्यों , अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला , दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
साधू जन रमा भला , दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला , जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
साधु जन बैठा भला , जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै , ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
अवगुण छाड़ै गुण गहै , ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई , ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
भीतर और न बसावई , ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में , कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
यों साधू संसार में , कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को , गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
कहैं कबीर ता साधु को , गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का , अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
साधु सती और सूर का , अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं , साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
तीनों निकसि न बाहुरैं , साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने , सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
लाहा कारण आपने , सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को , इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
जो चाहै दीदार को , इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों , मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
पारै पहुँची नाव ज्यों , मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है , बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
मान सरोवर हंस है , बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की , जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
सेवा कीजै साधु की , जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते , सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥
लोहा पारस परस ते , सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं , तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥
भव सागर से पार हैं , तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के , कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥
येते लक्षण साधु के , कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥
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सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना , भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥
ज्ञान बिना पशु जीवना , भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै , कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥
हरष शोक निन्दा तजै , कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी , उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥
शीतल सन्त शिरोमनी , उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा , तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥
कामी क्रोधी मस्खरा , तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में , तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥
सुपच भक्त की पनहि में , तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी , नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥
इक मन्दिर को का पड़ी , नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग , है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥
डग-डग पे असमेध जग , है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं , सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥
जग कुत्ता पीछे फिरैं , सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी , और सकल पर पंच ॥ 634 ॥
जब तब साधू तारसी , और सकल पर पंच ॥ 634 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में , ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥
बानी के बिस्तार में , ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन , गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥
कहैं कबीर के हेत बिन , गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन , नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥
कबीर जल और सन्तजन , नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं , चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं , चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये , पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥
ये ता तबही पाइये , पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥
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॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
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चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे , पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥
ते मुक्ता कैसे चुंगे , पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की , कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥
बोली बोले सियार की , कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया , भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
बाहर भेष बनाइया , भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये , जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥
सहजै सब सिधि पाइये , जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग , मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥
गुरुमुख बानी साधु संग , मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।
क्या रमता क्या बैठता , क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥
क्या रमता क्या बैठता , क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को , निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥
कहैं कबीर बैरागी को , निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के , रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥
तब गुरु आज्ञा लेय के , रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों , कोटिक सूख ॥ 648 ॥
कहैं कबीर तो दुख पर वारों , कोटिक सूख ॥ 648 ॥
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला , तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥
तासों तो कौवा भला , तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं , कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥
बिना कसौटी होत नहीं , कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि , ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥
मन के कूड़े देखि करि , ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी , नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥
मद माया और इस्तरी , नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले , गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥
साँच सिंह जब आ मिले , गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े , ताको वार न पार ॥ 654 ॥
दोऊ चूकि खाली पड़े , ताको वार न पार ॥ 654 ॥
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै , ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥
बैरागी बन्ध करै , ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥
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॥ भीख के विषय मे दोहे ॥
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उदर समाता माँगि ले , ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै , ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥
उदर समाता माँगि ले , ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै , ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै , मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
जब लग तू घर में रहै , मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे , होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥
तिनते पहिले वे मरे , होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के , मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥
कहैं कबीर समझाय के , मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै , तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥
अधिकहिं संग्रह ना करै , तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये , जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥
यह तीनों तब ही गये , जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है , जामें एंचातानि ॥ 663 ॥
कहैं कबीर वह रक्त है , जामें एंचातानि ॥ 663 ॥
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो , पर धर धरना देय ॥ 664 ॥
कहैं कबीर निकृष्टि सो , पर धर धरना देय ॥ 664 ॥
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले , निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
उदर समाता माँगि ले , निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
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॥ संगति पर दोहे ॥
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कबीरा संगत साधु की , नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी , देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥
कबीरा संगत साधु की , नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी , देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की , करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥
कबीर संगत साधु की , करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल बिरछ चन्दन भये , बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥
सकल बिरछ चन्दन भये , बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी , कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥
कहैं कबीर कोरी गजी , कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।
कबहुँ भाव कुभाव ते , जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
कबहुँ भाव कुभाव ते , जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।
संगति सो सुधरा नहीं , ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥
संगति सो सुधरा नहीं , ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।
कहैं कबीर तिहु लोक में , सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥
कहैं कबीर तिहु लोक में , सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।
मूरख मित्र न कीजिये , बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥
मूरख मित्र न कीजिये , बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै , जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥
कागा ते हंसा बनै , जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।
सब अंग तो विष सों भरा , अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥
सब अंग तो विष सों भरा , अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥
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तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।
काची सरसों पेरिकै , खरी भया न तेल ॥ 676 ॥
काची सरसों पेरिकै , खरी भया न तेल ॥ 676 ॥
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।
काचा सेती मिलत ही , है तन धन की हान ॥ 677 ॥
काचा सेती मिलत ही , है तन धन की हान ॥ 677 ॥
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।
मूरख होय न ऊजला , ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥
मूरख होय न ऊजला , ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।
कोयला होय न ऊजला , सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥
कोयला होय न ऊजला , सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।
ज्ञानी को आनी मिलै , हौवै माथा कूट ॥ 680॥
ज्ञानी को आनी मिलै , हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।
पारस तक पहुँचा नहीं , रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
पारस तक पहुँचा नहीं , रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।
संगति भई कलाल की , मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥
संगति भई कलाल की , मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।
जु दिन जाय सत्संग में , जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥
जु दिन जाय सत्संग में , जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।
कोटि जतन परमोधिये , कागा हंस न होय ॥ 684 ॥
कोटि जतन परमोधिये , कागा हंस न होय ॥ 684 ॥
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।
ऐसे संग छछून्दरी , दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥
ऐसे संग छछून्दरी , दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।
जैसे पाइ छछून्दरी , पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥
जैसे पाइ छछून्दरी , पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।
विषधर को मणिधर मिले , विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥
विषधर को मणिधर मिले , विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।
गहदा सो गहदा मिले , खावे दो दो लात ॥ 688 ॥
गहदा सो गहदा मिले , खावे दो दो लात ॥ 688 ॥
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।
तारै पर बोरे नहीं , बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
तारै पर बोरे नहीं , बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।
अपनी सीची जानि के , यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
अपनी सीची जानि के , यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे , त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥
कूप खनी जल बावरे , त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है , तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥
लर-लर लोई हेत है , तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो , ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥
संगति को बेरो भयो , ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू , घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥
ओछी संगत खर शब्द रू , घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली , धोते होय न सेत ॥ 696 ॥
साकुट काली कामली , धोते होय न सेत ॥ 696 ॥
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला , और न दूजा कोय ॥ 697 ॥
ध्यान धरो तब एकिला , और न दूजा कोय ॥ 697 ॥
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये , साधू जन को संग ॥ 698 ॥
मैले से निरमल भये , साधू जन को संग ॥ 698 ॥
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॥ सेवक पर दोहे ॥
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सतगुरु शब्द उलंघ के , जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है , कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥
सतगुरु शब्द उलंघ के , जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है , कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै , जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥
जों गुरु राखै त्यों रहै , जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥
- कबीर दास
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