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कबीर के दोहे - (601-700)

कबीर के दोहे  - (601-700)

निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे
, साधुन का मत येह ॥ 601
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै
, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ
, तृष्णा दूर पराय ॥ 603
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे
, साधु कहो मत ताहिं 604
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में
, रह विचार में सोय ॥ 605
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता
, कोमल हिरदा सोय ॥ 606
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते , भाव न गिनै अभाव ॥ 607
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया
, शीतलता न तजन्त 608
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों
, अपना जानत नाहिं ॥ 609
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला
, दाग न लागै कोय ॥ 610
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला
, जो कुछ साधन होय ॥ 611
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै
, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई
, ऊपर और न होय ॥ 613
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में
, कबीर फड़त न फंद ॥ 614
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को
, गंजि सकै न काल 615
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का
, अनी ऊपर का खेल ॥ 616
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं
, साधु सती औ सूर ॥ 617
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने
, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को
, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों
, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है
, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की
, जन्म कृतारथ होय ॥ 622
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते
, सो भी कंचन होय ॥ 623
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं
, तोरे जम के दन्त 624
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के
, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625
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सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना
, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै
, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी
, उनका ऐसा नूर ॥ 628
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा
, तिनकी पूजा होय ॥ 629
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में
, तुलै न काहू शीश ॥ 630
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी
, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग
, है कबीर समुझाय ॥ 632
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं
, सुनै न वाको सोर ॥ 633
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी
, और सकल पर पंच ॥ 634
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में
, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन
, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन
, नवैं तहाँ ठहराय 637
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं
, चढ़े चौगुना रंग 638
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये
, पूरन मस्तक भाग ॥ 639
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॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
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चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे
, पड़े काल के फंस ॥ 640
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की
, कुत्ता खवै फाल 641
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया
, भीतर भरी भंगार ॥ 642
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये
, जो मन जोगी होय ॥ 643
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग
, मन वच, सेवा सार ॥ 644
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।
क्या रमता क्या बैठता
, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को
, निरबानी निरदुन्द ॥ 646
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के
, रहे देशान्तर जाय ॥ 647
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों
, कोटिक सूख ॥ 648
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला
, तन मन एकहि रंग ॥ 649
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं
, कंचन की पहिचान ॥ 650
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि
, ता संग लीजै ओट ॥ 651
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी
, नहिं सन्तन के काम ॥ 652
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले
, गाडर कौन हवाल ॥ 653
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े
, ताको वार न पार ॥ 654
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥
655
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै
, ताका बड़ा अभाग ॥ 656
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॥ भीख के विषय मे दोहे ॥
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उदर समाता माँगि ले
, ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै
, ताकि गति न मोष ॥ 657
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै
, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे
, होत करत है नाहिं ॥ 659
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के
, मति कोई माँगे भीख ॥ 660
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै
, तिसका नाम फकीर ॥ 661
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये
, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है
, जामें एंचातानि ॥ 663
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो
, पर धर धरना देय ॥ 664
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले
, निश्च्य पावै योष ॥ 665
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॥ संगति पर दोहे ॥
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कबीरा संगत साधु की
, नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी
, देशी सुमति बताय ॥ 666
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की
, करै कोटि अपराध ॥ 667
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल बिरछ चन्दन भये
, बांस न चन्दन होय ॥ 668
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी
, कैसे लागै रंग ॥ 669
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।
कबहुँ भाव कुभाव ते
, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।
संगति सो सुधरा नहीं
, ताका बड़ा अभाग ॥ 671
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।
कहैं कबीर तिहु लोक में
, सुखी न देखा कोय ॥ 672
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।
मूरख मित्र न कीजिये
, बूड़ो काली धार ॥ 673
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै
, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।
सब अंग तो विष सों भरा
, अमृत कहाँ समाय ॥ 675
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तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।
काची सरसों पेरिकै
, खरी भया न तेल ॥ 676
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।
काचा सेती मिलत ही
, है तन धन की हान ॥ 677
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।
मूरख होय न ऊजला
, ज्यों कालर का खेत 678
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।
कोयला होय न ऊजला
, सौ मन साबुन लाय 679
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।
ज्ञानी को आनी मिलै
, हौवै माथा कूट 680
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।
पारस तक पहुँचा नहीं
, रहा लोह का लोह ॥ 681
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।
संगति भई कलाल की
, मद बिना रहा न जाए ॥ 682
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।
जु दिन जाय सत्संग में
, जीवन का फल सोय 683
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।
कोटि जतन परमोधिये
, कागा हंस न होय ॥ 684
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।
ऐसे संग छछून्दरी
, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।
जैसे पाइ छछून्दरी
, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।
विषधर को मणिधर मिले
, विष तजि अमृत होय ॥ 687
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।
गहदा सो गहदा मिले
, खावे दो दो लात 688
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।
तारै पर बोरे नहीं
, बाँह गहे की लाज ॥ 689
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट
690
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।
अपनी सीची जानि के
, यही बड़ने की रीति ॥ 691
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे
, त्याग दिया जल गंग ॥ 692
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है
, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो
, ताते नाम फुलेल ॥ 694
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू
, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली
, धोते होय न सेत ॥ 696
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला
, और न दूजा कोय 697
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये
, साधू जन को संग ॥ 698
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॥ सेवक पर दोहे ॥
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सतगुरु शब्द उलंघ के
, जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है
, कहैं कबीर समझाय ॥ 699
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै
, जो देवै सो खाय ॥ 700
- कबीर दास

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