कबीर के दोहे (101 - 200)
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश , ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
तब लग जीव जग कर्मवश , ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता , मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥
औरन को प्त बोधता , मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के , ऐके धका दरार ॥ 103 ॥
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के , ऐके धका दरार ॥ 103 ॥
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की , चार वेद का जीव ॥ 105 ॥
घी साखी कबीर की , चार वेद का जीव ॥ 105 ॥
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ , जाकी लाई होय ॥ 106 ॥
सो जाने जो जरमुआ , जाकी लाई होय ॥ 106 ॥
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया , आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥
बाल सने ही सांइया , आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा , दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥
जाके विषय विष भरा , दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा , भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥
सौरन कलश सुरा , भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में , कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥
होले-होले सुरत में , कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा , गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥
कबिरा पीछा क्या रहा , गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते , ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥
अनुभव भाव न दरसते , ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना , तैसा बन है और ॥ 114 ॥
जैसा बन है आपना , तैसा बन है और ॥ 114 ॥
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के , संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥
बाप-पूत उरभाय के , संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे , जामे कौन विचार ॥ 116 ॥
कबिरा खलक न तजे , जामे कौन विचार ॥ 116 ॥
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे , दया करे सब कोय ॥ 117 ॥
यह आपा तो डाल दे , दया करे सब कोय ॥ 117 ॥
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना , मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥
जीवा ऐसा पाहौना , मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे , मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥
जीय रही लूटत जम फिरे , मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे , रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥
है जैसा तैसा हो रहे , रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे , बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥
मुक्त ही जैसा हो रहे , बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख , चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥
चाहे बोले केस रख , चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा , पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥
हरि की बातें दुरन्तरा , पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की , मन में राखें नोह ॥ 125 ॥
आशा जीवन मरण की , मन में राखें नोह ॥ 125 ॥
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लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें , शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥
लीख पुरानी पर रहें , शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को , उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥
लखा जो चहे अलख को , उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया , सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥
भांडा घड़ निज मुख दिया , सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से , फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥
कहे कबीर बैकुण्ठ से , फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर , चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥
चाहे घर में वास कर , चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे , बाहर चोई देह ॥ 131 ॥
भीतर से रक्षा करे , बाहर चोई देह ॥ 131 ॥
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे , पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥
राई से पर्वत करे , पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं , जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥
अवसर बोवे उपजे नहीं , जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया , एक मोह समाय ॥ 134 ॥
एक से परचे भया , एक मोह समाय ॥ 134 ॥
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की , तन की अनथक साध ॥ 135 ॥
आशा छोड़े देह की , तन की अनथक साध ॥ 135 ॥
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि , लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥
निशिवासर सुख निधि , लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो , तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥
जोगी फेरी यों फिरो , तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ , जाकी लाई होय ॥ 138 ॥
सो जाने जो जरमुआ , जाकी लाई होय ॥ 138 ॥
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं , कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥
चुम्बक बिना निकले नहीं , कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा , पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥
हरि की बात दुरन्तरा , पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता , मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥
और्न को पथ बोधता , मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये , वही एक की एक ॥ 142 ॥
कह कबीर नहिं उलटिये , वही एक की एक ॥ 142 ॥
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे , तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥
नाक तलक पूरन भरे , तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले , एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥
एक सिंहासन चढ़ि चले , एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला , अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥
सूरत सँभाल ए काफिला , अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन , बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥
एक हरि के नाम बिन , बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है , भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥
इतने ही सब जात है , भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया , दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥
मानुष से पशुआ भया , दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे , रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥
है जैसा तैसा रहे , रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे , आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥
औरन को शीतल करे , आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥
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कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले , ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥
खीर खाँड़ भोजन मिले , ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया , एक बाहे समाय ॥ 152 ॥
एक से परचे भया , एक बाहे समाय ॥ 152 ॥
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में , ना जाने का होय ॥ 153 ॥
अजहूँ नाव समुद्र में , ना जाने का होय ॥ 153 ॥
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै , सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥
दुख बासे भागा फिरै , सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति , देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥
दुर्गति दूर वहावति , देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना , नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥
होमी चन्दन बासना , नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै , त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै , त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे , पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥
जम जब घर ले जाएँगे , पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो , और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥
साँस-साँस सुमिरन करो , और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस , मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥
काया बह्रा ईश बस , मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके , चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥
इनके भये न उतके , चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है , बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥
साधु वचन जल रूप है , बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे , जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥
सो कहता वह जान दे , जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै , सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥
जो जैसे संगति करै , सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने , ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥
ताहि का बखतर बने , ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी , कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥
देह खेह हो जाएगी , कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का , आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥
बोया पेड़ बबूल का , आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है , दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥
ऐसे घट-घट राम है , दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना , लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥
एक दिना है सोवना , लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के , जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥
मीठे शब्द सुनाय के , जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ , सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥
कबिरा मनहि गयन्द है , आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै , अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥
जो पर पीर न जानइ , सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥
कबिरा मनहि गयन्द है , आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै , अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है , और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥
आप ठगे सुख होत है , और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥
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कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत , नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥
कहत कबीरा या जगत , नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की , कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥
कै सेवा कर साधु की , कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना , सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥
चाहे कहूँ सत आइना , सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं , जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥
अवसर बोवे उपजे नहीं , जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा , दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥
जाके विषय विष भरा , दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की , हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥
कह कबीर वा साधु की , हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की , मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥
आशा जीवन मरण की , मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे , मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥
वाके अग्ङ लपटा रहे , मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला , मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥
दाना तो दुश्मन भला , मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं , लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥
हारि चले सो साधु हैं , लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके , साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥
दुइ पट भीतर आइके , साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे , लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥
राम नाम रसना बसे , लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले , नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥
कह कबीर वह क्यों मिले , नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है , बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥
तोकू फूल के फूल है , बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की , साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥
जैसे खाल लुहार की , साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए , बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥
मूर्ख लोग न जानिए , बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा , ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥
पुछुप बास तें पामरा , ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं , चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥
कह कबीर यह क्यों मिटैं , चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥
मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे , जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥
कबिरा खलक न तजे , जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे , पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥
बिको न यक भरमत फिरे , पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का , कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥
जगत चबेना काल का , कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे , सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥
मुक्त ही जैसा हो रहे , सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना , मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥
जीवा ऐसा पाहौना , मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥
- कबीर दास
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