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शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ - मेरा देश जल रहा


(3)

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला 

 
घर-आंगन में आग लग रही ।
सुलग रहे वन -उपवन
,
दर दीवारें चटख रही हैं

जलते छप्पर- छाजन ।

तन जलता है
, मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन
,
एक नहीं जलते सदियों से

जकड़े गर्हित बंधन ।

दूर बैठकर ताप रहा है
,
आग लगानेवाला
,
मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला।
 

भाई की गर्दन पर

भाई का तन गया दुधारा

सब झगड़े की जड़ है

पुरखों के घर का बँटवारा

एक अकड़कर कहता

अपने मन का हक ले लेंगें
,
और दूसरा कहता तिल

भर भूमि न बँटने देंगें ।

पंच बना बैठा है घर में
,
फूट डालनेवाला
,
मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
 
दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी
,
किंतु एक दिन को भी

हमको अखरी नहीं गुलामी ।

दानों को मोहताज हो गए

दर-दर बने भिखारी
,
भूख
, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी ।

आज धार्मिक बना
,
धर्म का नाम मिटानेवाला

मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
 
होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती
,
कुल-कलंक-संतान

सौर में गला घोंट मैं देती ।

लोग निपूती कहते पर

यह दिन न देखना पड़ता
,
मैं न बंधनों में सड़ती

छाती में शूल न गढ़ता ।

बैठी यही बिसूर रही माँ
,
नीचों ने घर घाला
,
मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
 
भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन
, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें
, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी

जिस धरती को तन की

देकर खाद खून से सींचा
,
अंकुर लेते समय उसी पर

किसने जहर उलीचा ।

हरी भरी खेती पर ओले गिरे
,
पड़ गया पाला
,
मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
 
जब भूखा बंगाल,
तड़पमर गया ठोककर किस्मत
,
बीच हाट में बिकी

तुम्हारी माँ - बहनों की अस्मत।

जब कुत्तों की मौत मर गए

बिलख-बिलख नर-नारी
,
कहाँ कई थी भाग उस समय

मरदानगी तुम्हारी ।

तब अन्यायी का गढ़ तुमने

क्यों न चूर कर डाला
,
मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला।
 

पुरखों का अभिमान तुम्हारा

और वीरता देखी
,
राम - मुहम्मद की संतानों
 !
व्यर्थ न मारो शेखी ।

सर्वनाश की लपटों में

सुख-शांति झोंकनेवालों
 !
भोले बच्चें
, अबलाओ के
छुरा भोंकनेवालों
 !
ऐसी बर्बरता का

इतिहासों में नहीं हवाला
,
मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
 
घर-घर माँ की कलख
पिता की आह
, बहन का क्रंदन,
हाय
, दूधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन
 ?
इस दिन की खातिर ही थी

शमशीर तुम्हारी प्यासी
 ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी

रहे न भारतवासी।

हँसते हैं सब देख

गुलामों का यह ढंग निराला ।

मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला।
 

जाति-धर्म गृह-हीन

युगों का नंगा-भूखा-प्यासा
,
आज सर्वहारा तू ही है

एक हमारी आशा ।

ये छल छंद शोषकों के हैं

कुत्सित
, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही

ये दंगों के फंदे ।

तेरा एका गुमराहों को

राह दिखानेवाला
,
मेरा देश जल रहा
,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
 

                  -  शिवमंगल सिंह सुमन’ 

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