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सूरदास - अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल

(12)

अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल

 
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत असंगत चाल॥
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अबिद्या दूरि करौ नँदलाल॥

सूरदास

 
भावार्थ :-
 
इस पद में सूरदास जी कहते हैं- हे गोपाल! अब मैं बहुत नाच चुका। काम और क्रोध का जामा पहनकर, विषय (चिन्तन) की माला गले में डालकर, महामोहरूपी नूपुर बजाता हुआ, जिनसे निन्दा का रसमय शब्द निकलता है (महामोहग्रस्त होने से निन्दा करने में ही सुख मिलता रहा), नाचता रहा। भ्रम (अज्ञान) से भ्रमित मन ही पखावज (मृदंग) बना। कुसङ्गरूपी चाल मैं चलता हूँ। अनेक प्रकार के ताल देती हुई तृष्णा हृदय के भीतर नाद (शब्द) कर रही है। कमर में माया का फेटा (कमरपट्टा) बाँध रखा है और ललाट पर लोभ का तिलक लगा लिया है। जल और स्थल में (विविध) स्वाँग धारणकर (अनेकों प्रकार से जन्म लेकर) कितने समय से यह तो मुझे स्मरण नहीं (अनादि काल से)- करोड़ों कलाएँ मैंने भली प्रकार दिखलायी हैं (अनेक प्रकार के कर्म करता रहा हूँ)। हे नन्दलाल! अब तो सूरदास की सभी अविद्या (सारा अज्ञान) दूर कर दो। माया के वशीभूत मनुष्य की स्थिति का इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने सांगोपांग चित्रण किया है। सांसारिक प्रपंचों में पड़कर लक्ष्य से भटके जीवों का एकमात्र सहारा ईश्वर ही है।
 
* भ्रम = अज्ञान
* पखावज = मृदंग
* नाद = शब्द
* फेटा = कमरपट्टा
* अविद्या  = अज्ञान

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