( 5 )
सुबह रो रो के शाम होती है
सुबह रो रो के शाम होती है
शव तड़प कर तमाम होती है
सामने चश्म-ए-मस्त के साकी
किस को परवाह-ए-जाम होती है
कोइ गुंचा खिलाके बुलबुल को
बेकली ज़र-ए-दम होती है
हम जो कहते हैं कुछ इशारों से
ये कहता ला-कलाम होती है
सुबह रो रो के शाम होती है
शव तड़प कर तमाम होती है
सामने चश्म-ए-मस्त के साकी
किस को परवाह-ए-जाम होती है
कोइ गुंचा खिलाके बुलबुल को
बेकली ज़र-ए-दम होती है
हम जो कहते हैं कुछ इशारों से
ये कहता ला-कलाम होती है
- बहादुर शाह ज़फ़र
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