असद भोपाली – गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
(4)
गिराँ
गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
गिराँ
गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
ज़रा
थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे
न
आया ग़म भी मोहब्बत में साज़-गार मुझे
वो
ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे
निगाह-ए-शर्मगीं
चुपके से ले उड़ी मुझ को
पुकारता
ही रहा कोई बार बार मुझे
निगाह-ए-मस्त
ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है
ज़माने
वाले समझते हैं होशियार मुझे
बजा
है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन
न
इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे
बहार और
ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे
अगर
मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे
- असद भोपाली
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