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रहीम के दोहे - ( 401 – 482 )

रहीम के दोहे - ( 401 – 482 )



उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान ।
सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥
समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम ।
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥ 402 ॥
उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर ।
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥ 403 ॥
सुगमहि गातहि गारन, जारन देह ।
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥ 404 ॥
मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार ।
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥ 405 ॥
झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह ।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥ 406 ॥

झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात ।
फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥
डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार ।
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार ॥ 408 ॥
कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय ।
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥
जबते आयौ सजनी, मास असाढ़ ।
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥
मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ ।
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥
वेद पुरान बखानत, अधम उधार ।
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार ॥ 412 ॥
लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर ।
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर ॥ 413 ॥
लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस ।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥
बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव ।
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव ॥ 415 ॥
भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग ।
संग रहत या तन की, छाँही भाग ॥ 416 ॥
भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार ।
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार ॥ 417 ॥

जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग ।
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥
जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस ।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास ॥ 419 ॥
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह ॥ 420 ॥
कब तें देखत सजनी, बरसत मेह ।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ॥ 421 ॥
विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि ।
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ॥ 422 ॥
उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि ।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ॥ 423 ॥
भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार ।
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार ॥ 424 ॥
हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक ।
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥ 425 ॥
इन बातन कछु होत न, कहो हजार ।
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार ॥ 426 ॥
कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति ।
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥
बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर ।
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर ॥ 428 ॥

भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि ।
कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥
अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार ।
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार ॥ 430 ॥
घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय ।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥ 431 ॥
नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं ।
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि ॥ 432 ॥
सहज हँसोई बातें, होत चवाइ ।
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ ॥ 433 ॥
ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह ।
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ॥ 434 ॥
मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय ।
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥
अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात ।
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात ॥ 436 ॥
निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात ।
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात ॥ 437 ॥
बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान ।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥ 438 ॥
जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात ।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥

ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान ।
ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥ 440 ॥
मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात ।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात ॥ 441 ॥
जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन ।
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन ॥ 442 ॥
कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय ।
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥
जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ ।
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ ॥ 444 ॥
मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक ।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ॥ 445 ॥
गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक ।
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक ॥ 446 ॥
होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि ।
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि ॥ 447 ॥
दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू ।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ॥ 448 ॥
जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं ।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥
उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार ।
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥

मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान ।
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥ 451 ॥
जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस ।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ॥ 452 ॥
चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय ।
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय ॥ 453 ॥
तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात ।
होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥ 454 ॥
और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह ।
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ॥ 455 ॥
जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास ।
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥ 456 ॥
अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान ।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ॥ 457 ॥
गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप ।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ॥ 458 ॥
सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय ।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय ॥ 459 ॥
उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज ।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज ॥ 460 ॥
जिहिके लिये जगत में, बजै निसान ।
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान ॥ 461 ॥

रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर ।
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥ 462 ॥
विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय ।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ॥ 463 ॥
सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर ।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥
लखि मोहन की बंसी, बंसी जान ।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ॥ 465 ॥
तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ ।
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई ॥ 466 ॥
मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार ।
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥ 467 ॥
नव नागर पद परसी, फूलत जौन ।
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥ 468 ॥
समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति ।
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥ 469 ॥
नृप जोगी सब जानत, होत बयार ।
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥
मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन ।
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥
भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस ।
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥ 472 ॥

गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार ।
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥
दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह ।
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥ 474 ॥
लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग ।
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥ 475 ॥
मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि ।
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥ 476 ॥
होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय ।
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥ 477 ॥
अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर ।
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥ 478 ॥
आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि ।
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥ 479 ॥
पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव ।
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥ 480 ॥
या झर में घर घर में, मदन हिलोर ।
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥ 481 ॥
बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि ।
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥ 

-- रहीम


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