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रहीम के दोहे - ( 301 – 400 )

रहीम के दोहे - ( 301 – 400 )    

मानो मूरत मोम की, धरै रंग सुर तंग ।
नैन रंगीले होते हैं, देखत बाको रंग ॥ 301 ॥
भाटा बरन सु कौजरी, बेचै सोवा साग ।
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग ॥ 302 ॥
बर बांके माटी भरे, कौरी बैस कुम्हारी ।
द्वै उलटे सखा मनौ, दीसत कुच उनहारि ॥ 303 ॥
कुच भाटा गाजर अधर, मुरा से भुज पाई ।
बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई ॥ 304 ॥
राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि ।
बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि ॥ 305 ॥
परम ऊजरी गूजरी, दह्यो सीस पै लेई ।
गोरस के मिसि डोलही, सो रस नेक न देई ॥ 306 ॥
रस रेसम बेचत रहै, नैन सैन की सात ।
फूंदी पर को फौंदना, करै कोटि जिम घात ॥ 307 ॥
छीपिन छापो अधर को, सुरंग पीक मटि लेई ।
हंसि-हंसि काम कलोल के, पिय मुख ऊपर देई ॥ 308 ॥

नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ ।
बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ ॥ 309 ॥
सुरंग बदन तन गंधिनी, देखत दृग न अघाय ।
कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय ॥ 310 ॥
मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगी विष बैन ।
मुदरा धारै अधर कै, मूंदि ध्यान सों नैन ॥ 311 ॥
सकल अंग सिकलीगरनि, करत प्रेम औसेर ।
करैं बदन दर्पन मनो, नैन मुसकला फेरि ॥ 312 ॥
घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाई ।
कूक कंठ तै बांधि कै, लेजूं लै ज्यों जाई ॥ 313 ॥
बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ ।
वाके जेहरि के सबद, बिरही हर जिय जाइ ॥ 314 ॥
रहसनि बहसनि मन रहै, घोर घोर तन लेहि ।
औरत को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि ॥ 315 ॥
निरखि प्रान घट ज्यौं रहै, क्यों मुख आवे वाक ।
उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक ॥ 316 ॥
हंसि-हंसि मारै नैन सर, बारत जिय बहुपीर ।
बोझा ह्वै उर जात है, तीर गहन को तीर ॥ 317 ॥
गति गरुर गमन्द जिमि, गोरे बरन गंवार ।
जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहार ॥ 318 ॥
बिरह अगिनि निसिदिन धवै, उठै चित्त चिनगारि ।
बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि ॥ 319 ॥

चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ ।
रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ ॥ 320 ॥
सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाए पान ।
निस दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान ॥ 321 ॥
मारत नैन कुरंग ते, मौ मन भार मरोर ।
आपन अधर सुरंग ते, कामी काढ़त बोर ॥ 322 ॥
रंगरेजनी के संग में, उठत अनंग तरंग ।
आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अन्त के रंग ॥ 323 ॥
नैन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देत ।
मतवारे की मति हरै, जो चाहै सो लेती ॥ 324 ॥
जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक ।
सूधी करत कमान ज्यों, बिरह अगिन में सेक ॥ 325 ॥
बेलन तिली सुवाय के, तेलिन करै फुलैल ।
बिरही दृष्टि कियौ फिरै, ज्यों तेली को बैल ॥ 326 ॥
भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात ।
आवत बहु आदर करे, जान न पूछै बात ॥ 327 ॥
अधर सुधर चख चीखने, वै मरहैं तन गात ।
वाको परसो खात ही, बिरही नहिन अघात ॥ 328 ॥
हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात ।
झूठे हू गारी सुनत, सोचेहू ललचात ॥ 329 ॥
गरब तराजू करत चरव, भौह भोरि मुसकयात ।
डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटि जात ॥ 330 ॥

परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि ।
मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि ॥ 331 ॥
और बनज व्यौपार को, भाव बिचारै कौन ।
लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन ॥ 332 ॥
बनियांइन बनि आइकै, बैठि रूप की हाट ।
पेम पेक तन हेरि कै, गरुवे टारत वाट ॥ 333 ॥
कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात ।
वाको करूओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात ॥ 334 ॥
रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग ।
न जानै संजोग रस, न जानै बैराग ॥ 335 ॥
चीता वानी देखि कै, बिरही रहै लुभाय ।
गाड़ी को चिंता मनो, चलै न अपने पाय ॥ 336 ॥
मन दल मलै दलालनी, रूप अंग के भाई ।
नैन मटकि मुख की चटकि, गांहक रूप दिखाई ॥ 337 ॥
घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि ।
घर घर वाके रूप को, रह्यो नगारा बाजि ॥ 338 ॥
जो वाके अंग संग में, धरै प्रीत की आस ।
वाके लागे महि महि, बसन बसेधी बास ॥ 339 ॥
सोभा अंग भंगेरिनी, सोभित माल गुलाल ।
पना पीसि पानी करे, चखन दिखावै लाल ॥ 340 ॥
जाहि-जाहि के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन ।
निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन ॥ 341 ॥

बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू न ताहि ।
वाके जोबन रूप की, अकथ कछु आहि ॥ 342 ॥
पान पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान ।
सुरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान ॥ 343 ॥
कुन्दन-सी कुन्दीगरिन, कामिनी कठिन कठोर ।
और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर ॥ 344 ॥
कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ ।
बिरही वाकै भौन में, ताना तनत भजाइ ॥ 345 ॥
बिरह विथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाई ।
मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाई ॥ 346 ॥
निस दिन रहै ठठेरनी, झाजे माजे गात ।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात ॥ 347 ॥
सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मन न कलंक ।
सेत बसन कीने मनो, साबुन लाई मतंक ॥ 348 ॥
नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय ।
छबि ते चित्त छुड़ावही, नट के भई दिखाय ॥ 349 ॥
बांस चढ़ी नट बंदनी, मन बांधत लै बांस ।
नैन बैन की सैन ते, कटत कटाछन सांस ॥ 350 ॥
लटकि लेई कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल ।
सेत लाल छवि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल ॥ 351 ॥
कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग ।
भाना भामै भोर ही, रहै घटा के संग ॥ 352 ॥

काम पराक्रम जब करै, धुवत नरम हो जाइ ।
रोम रोम पिय के बदन, रुई सी लपटाइ ॥ 353 ॥
बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारैं देह ।
फिर तन गेह न आवही, मन जु चेटुवा लेह ॥ 354 ॥
नेकु न सूधे मुख रहै, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ ।
उपपति की सुनि जात है, सरबस लेइ रिझाइ ॥ 355 ॥
बोलन पै पिय मन बिमल, चितवति चित्त समाय ।
निस बासर हिन्दू तुरकि, कौतुक देखि लुभाय ॥ 356 ॥
प्रेम अहेरी साजि कै, बांध परयौ रस तान ।
मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान ॥ 357 ॥
अलबेली अदभुत कला, सुध बुध ले बरजोर ।
चोरी चोरी मन लेत है, ठौर-ठौर तन तोर ॥ 358 ॥
कहै आन की आन कछु, विरह पीर तन ताप ।
औरे गाइ सुनावई, और कछू अलाप ॥ 359 ॥
लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान ।
गाइ गाइ कुछ लेत है, बांकी तिरछी तान ॥ 360 ॥
मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन ।
आपुन जोबन रूप की, अस्तुति करे न कौन ॥ 361 ॥
मिलत अंग सब मांगना, प्रथम माँन मन लेई ।
घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई ॥ 362 ॥
विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन ।
करत कोप बहुत भांत ही, धाइ मैन की सैन ॥ 363 ॥

अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त ।
लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त ॥ 364 ॥
धासिनी थोड़े दिनन की, बैठी जोबन त्यागि ।
थोरे ही बुझ जात है, घास जराई आग ॥ 365 ॥
चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ ।
संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ ॥ 366 ॥
रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह ।
सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह ॥ 367 ॥
बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक ।
बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक ॥ 368 ॥
नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल ।
जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल ॥ 369 ॥
बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन ।
जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन ॥ 370 ॥
धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति ।
वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति ॥ 371 ॥
मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास ।
सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास ॥ 372 ॥
थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव ।
रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव ॥ 373 ॥
पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात ।
रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात ॥ 374 ॥

जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 375 ॥
ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों ।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै ॥ 376 ॥
रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै ।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै ॥ 377 ॥
रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं ।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ॥ 378 ॥
बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं ।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें ॥ 379 ॥
अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ ।
सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ ॥

रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं ।
जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै ॥ 380 ॥
रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु ।
बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ॥ 381 ॥
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै ।
कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै ॥ 382 ॥
रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में ।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं ॥ 383 ॥
चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 384 ॥
घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान ।
डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान ॥ 385 ॥
बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस ।
निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस ॥ 386 ॥
सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार ।
जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार ॥ 387 ॥
भजहु चराचर-नायक सूरज देव ।
दीन जनन-सुखदायक, तारत एव ॥ 388 ॥
ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस ।
नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस ॥ 389 ॥
ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर ।
खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर ॥ 390 ॥
पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात ।
जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात ॥ 391 ॥
करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर ।
लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर ॥ 392 ॥
बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार ।
सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर ॥ 393 ॥
अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम ।
राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम ॥ 394 ॥
कबलौं रहि है सजनी, मन में धीर ।
सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर ॥ 395 ॥

घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज ।
पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज ॥ 396 ॥
पीव पीव कहि चातक, सठ अहरात ।
अजहूँ न आये सजनी, तरफत प्रान ॥ 397 ॥
मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय ।
तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय ॥ 398 ॥
बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव ।
मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव ॥ 399 ॥
मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय ।
गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय ॥ 400 ॥ 

- रहीम

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