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मीना कुमारी - मुहब्बत

(8)

*

मुहब्बत

 
बहार की फूलों की तरह मुझे अपने जिस्म के रोएं रोएं से
फूटती मालूम हो रही है

मुझे अपने आप पर एक

ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है जिसके रेशमी बादबान

तने हुए हों और जिसे

पुरअसरार हवाओं के झोंके आहिस्ता आहिस्ता दूर दूर

पुर सुकून झीलों

रौशन पहाड़ों और

फूलों से ढके हुए गुमनाम ज़ंजीरों की तरफ लिये जा रहे हों

वह और मैं

जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें

अपने अनकहे
, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह रहकर चमकते दिखाई देते हैं

हमारी गुफ़्तगू की ज़बान

वही है जो

दरख़्तों
, फूलों, सितारों और आबशारों की है
यह घने जंगल

और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर

अपने पीछे

रौशनी और शबनम के आँसु छोड़ जाती है
, महबूब
आह

मुहब्बत !


**
 

मुहब्बत
क़ौस ए कुज़ह की तरह

क़ायनात के एक किनारे से

दूसरे किनारे तक तनी हुई है

और इसके दोनों सिरे

दर्द के
अथाह समुन्दर में डूबे  हुए हैं


- मीना कुमारी

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