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साहिर लुधियानवी - प्यार पर बस तो नहीं है मेरा

(9)

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा 

 
प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी 
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं  
तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें  
उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं
 

मेरे ख्वाबों के  झरोखों को सजाने वाली
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं


चार दिन की ये रफ़ाक़त जो रफ़ाक़त भी नहीं
 उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है
जिन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर सांस गिरांबार हुई जाती है


मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है
कभी इख़लास की मूरत कभी हरजाई है


तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
 
मेरी रातें तेरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं  
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की क़सम  
तेरी पलकें मेरी आंखों पे झुकी रहती हैं


तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक
 
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में  
ढूंढती रहती हैं तख़ईल की बाहें तुझको  
सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में


तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
 
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो  
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम  
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो


कौन जाने मेरी इम्रोज़ का फ़र्दा क्या है
 
क़ुबर्तें बढ़ के पशेमान भी हो जाती है  
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें  
देखते देखते अंजान भी हो जाती है


मेरी दरमांदा जवानी की तमाओं के
 
मुज्महिल ख्वाब की ताबीर बता दे मुझको  
तेरे दामन में गुलिस्ता भी है , वीराने भी 
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको

साहिर लुधियानवी

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