Old bollywood movies; old bollwood songs

Watch old Bollywood movies, Listen old songs.... click here

हरिवंश राय बच्चन - लहरों का निमंत्रण


(24)  


लहरों का निमंत्रण



तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!


रात का अंतिम प्रहर है,
झिलमिलाते हैं सितारे,
वक्ष पर युग बाहु बाँधे
मैं खड़ा सागर किनारे
वेग से बहता प्रभंजन
केश-पट मेरे उड़ाता,
शून्य में भरता उदधि--
उर की रहस्यमयी पुकारें,
इन पुकारों की प्रतिध्वनि
हो रही मेरे हृदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर
सिंधु का हिल्लोल - कंपन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!


विश्व की संपूर्ण पीड़ा
सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क पृथ्वी आँसुओं से
पाँव अपने धो रही है,
इस धरा पर जो बसी दुनिया
यही अनुरूप उसके--
इस व्यथा से हो न विचलित
नींद सुख की सो रही है,
क्यों धरणि अब तक न गलकर
लीन जलनिधि में गई हो?
देखते क्यों नेत्र कवि के
भूमि पर जड़-तुल्य जीवन?
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!


जड़ जगत में वास कर भी
जड़ नहीं व्यवहार कवि का
भावनाओं से विनिर्मित
और ही संसार कवि का,
बूँद के उच्छ्वास को भी
अनसुनी करता नहीं वह,
किस तरह होता उपेक्षा-
पात्र पारावार कवि का,
विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित
हो तरल बनने, पिघलने,
त्याग कर आया यहाँ कवि
स्वप्न-लोकों के प्रलोभन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण।


जिस तरह मरु के हृदय में
है कहीं लहरा रहा सर,
जिस तरह पावस-पवन में
है पपीहे का छिपा स्वर
जिस तरह से अश्रु-आहों से
भरी कवि की निशा में
नींद की परियाँ बनातीं
कल्पना का लोक सुखकर
सिंधु के इस तीव्र हाहा -
कार ने, विश्वास मेरा,
है छिपा रक्खा कहीं पर
एक रस-परिपूर्ण गायन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण।


नेत्र सहसा आज मेरे
तम-पटल के पार जाकर
देखते हैं रत्न-सीपी से
बना प्रासाद सुन्दर
है खड़ी जिसमें उषा ले,
दीप कुंचित रश्मियों का,
ज्योति में जिसकी सुनहरली
सिंधु कन्याएँ मनोहर
गूढ़ अर्थों से भरी मुद्रा
बनाकर गान करतीं
और करतीं अति अलौकिक
ताल पर उन्मत्त नर्तन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं
आज लहरों में निमंत्रण!


मौन हो गंधर्व बैठे
कर श्रवण इस गान का स्वर,
वाद्य-यंत्रों पर चलाते
हैं नहीं अब हाथ किन्नर,
अप्सराओं के उठे जो
पग उठे ही रह गए हैं,
कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक
साथ देवों के पुरन्दर
एक अद्भुत और अविचल
चित्र-सा है जान पड़ता,
देव बालाएँ विमानों से
रहीं कर पुष्प-वर्णन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!


दीर्घ उर में भी जलधि के
हैं नहीं खुशियाँ समाती,
बोल सकता कुछ न उठती
फूल वारंवार छाती,
हर्ष रत्नागार अपना
कुछ दिखा सकता जगत को,
भावनाओं से भरी यदि
यह फफककर फूट जाती,
सिन्धु जिस पर गर्व करता
और जिसकी अर्चना को
स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके
प्रति करे कवि अर्घ्य अर्पण।
तीर पर कैसे रुकूँ में
आज लहरों में निमंत्रण!


आज अपने स्वप्न को मैं
सच बनाना चाहता हूँ,
दूर की इस कल्पना के
पास जाना चाहता हूँ,
चाहता हूँ तैर जाना
सामने अंबुधि पड़ा जो,
कुछ विभा उस पार की
इस पार लाना चाहता हूँ,
स्वर्ग के भी स्वप्न भू पर
देख उनसे दूर ही था,
किन्तु पाऊँगा नहीं कर
आज अपने पर नियंत्रण।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं
आज लहरों में निमंत्रण,


लौट आया यदि वहाँ से
तो यहाँ नव युग लगेगा,
नव प्रभाती गान सुनकर
भाग्य जगती का जगेगा,
शुष्क जड़ता शीघ्र बदलेगी
सरल चैतन्यता में,
यदि न पाया लौट, मुझको
लाभ जीवन का मिलेगा,
पर पहुँच ही यदि न पाया
व्यर्थ क्या प्रस्थान होगा?
कर सकूँगा विश्व में फिर-
भी नए पथ का प्रदर्शन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

१०

स्थल गया है भर पथों से
नाम कितनों के गिनाऊँ,
स्थान बाकी है कहाँ पथ
एक अपना भी बनाऊँ?
विश्व तो चलता रहा है
थाम राह बनी-बनाई
किंतु इनपर किस तरह मैं
कवि-चरण अपने बढ़ाऊँ?
राह जल पर भी बनी है,
रूढ़ि, पर, न हुई कभी वह,
एक तिनका भी बना सकता
यहाँ पर मार्ग नूतन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

११

देखता हूँ आँख के आगे
नया यह क्या तमाशा -
कर निकलकर दीर्घ जल से
हिल रहा करता मना-सा,
है हथेली-मध्य चित्रित
नीर मग्नप्राय बेड़ा!
मैं इसे पहचानता हूँ,
हैं नहीं क्या यह निराशा?
हो पड़ी उद्दाम इतनी
उर-उमंगे, अब न उनको
रोक सकता भय निराशा का,
न आशा का प्रवंचन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

१२

पोत अगणित इन तरंगों ने
डुबाए मानता मैं,
पार भी पहुँचे बहुत-से --
बात यह भी जानता मैं,
किन्तु होता सत्य यदि यह
भी, सभी जलयान डूबे,
पार जाने की प्रतिज्ञा
आज बरबस ठानता मैं,
डूबता मैं, किंतु उतराता
सदा व्यक्तित्व मेरा
हों युवक डूबे भले ही
है कभी डूबा न यौवन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

१३

आ रहीं प्राची क्षितिज से
खींचने वाली सदाएँ,
मानवों के भाग्य-निर्णायक
सितारों! दो दुआएँ,
नाव, नाविक, फेर ले जा,
हैं नहीं कुछ काम इसका,
आज लहरों से उलझने को
फड़कती हैं भुजाएँ
प्राप्त हो उस पार भी इस
पार-सा चाहे अंधेरा,
प्राप्त हो युग की उषा
चाहे लुटाती नव किरन-धन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!



- हरिवंश राय बच्चन
   

*******************************************************************















No comments:

Post a Comment