(2)
एक बूँद
"मैं हूँ कृपण कहाँ आई तू
ले कर जीवन भर की प्यास?
दे सकता हूँ एक बूँद मैं
जा तू अन्य धनी के पास।"
"बस बस एक बूँद ही दे दे!"
कहा तृषार्ता ने खिलकर-
"किसके पास कहाँ जाऊँ अब
तुझ-से दानी से मिलकर?
सिक्ता की कंटक शैय्या पर
इसी बूँद की आशा में
आतप के पंचाग्नि ताप से
डिगी नहीं हूँ मैं तिल भर।
मेरे पुलक-स्वाति के घन हे।
पूरा कर मेरा अभिलाष
अधिक नहीं बस इस सीपी को
एक बूँद की ही है प्यास।"
- सियाराम शरण गुप्त
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