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सियाराम शरण गुप्त - भेंट

(5)

 भेंट
   
करो नाथ स्वीकार आज इस हृदय-कुसुम को
करें और क्या भेंट राजराजेश्वर तुमको?
सौरभ की है कमी कहाँ पर उसको पावें?
सुन्दरता है नहीं कहाँ से वह भी लावें?

नहीं आपके योग्य भेंट यह ध्रुव निश्चय है
पर जैसी है आज वही सम्मुख सविनय है।
इष्ट नहीं यह करो कि धारण इसे हृदय पर।
निज मंदिर में ठौर कहीं इसको दो प्रभुवर।

तब पद-छाया अकस्मात जिस दिन पावेगा
तुच्छ कुसुम यह राज कुसुम से बढ जावेगा।
अंतहीन सुवसंत इसे विकसित कर देगा
निरुपमेय सौन्दर्य-सुरभि इसमें भर देगा।

उस दिन गर्व समेत कह सकेंगे हम तुमसे-
क्या अब भी है अरुचि तुम्हें इस वन्य कुसुम से?
                  
- सियाराम शरण गुप्त

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