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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ - चाँद का कुर्ता

(17)



चाँद का  कुर्ता


हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला


सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े में मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ


आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाड़े का


बच्चे की सुन बात कहा माता ने अरे सलोने
कुशल करे भगवान लगे मत तुझको जादू टोने


जाड़े की तो बात ठीक है पर मै तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ

 
कभी एक अंगुल भर चौड़ा कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा


घटता बढ़ता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है


अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें?
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आये?



-    रामधारी सिंह दिनकर

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