(3)
मैं तुझे फ़िर मिलूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ किस तरह पता नहीं
शायद तेरे तख़्य्युल
की चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
या फिर सूरज कि लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो कि बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास से लिपट जाउँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूँदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक ठंडक- सी बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी !!
- अमृता प्रीतम
****************************************
No comments:
Post a Comment