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हरिवंशराय बच्चन - साथी, साँझ लगी अब होने

(33)

साथी, साँझ लगी अब होने


साथी, साँझ लगी अब होने !
फैलाया था जिन्हें गगन में,
विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने !
साथी, साँझ लगी अब होने !

खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में,
वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने !
साथी, साँझ लगी अब होने !

मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल-घरौंदे छोड़ पथों पर चले गए हैं बच्चे सोने !
साथी, साँझ लगी अब होने !

- हरिवंशराय बच्चन


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