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दुष्यंत कुमार - मापदण्ड बदलो

(10)


मापदण्ड बदलो 

 
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
,
जुए के पत्ते-सा

मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं
,
कोपलें उग रही हैं
,
पत्तियाँ झड़ रही हैं
,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ
,
लड़ता हुआ

नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।


अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं
,
मेरे बाज़ू टूट गए
,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए
,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया
,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं
,
तो मुझे पराजित मत मानना
,
समझना

तब और भी बड़े पैमाने पर

मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा
,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ

एक बार और

शक्ति आज़माने को

धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को

मचल रही होंगी ।

एक और अवसर की प्रतीक्षा में

मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।


ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं

ये मुझको उकसाते हैं ।

पिण्डलियों की उभरी हुई नसें

मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।

मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ

क़सम देती हैं ।

कुछ हो अब
, तय है
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है
,
पत्थरों के सीने में

प्रतिध्वनि जगाते हुए

परिचित उन राहों में एक बार

विजय-गीत गाते हुए जाना है

जिनमें मैं हार चुका हूँ ।


मेरी प्रगति या अगति का

यह मापदण्ड बदलो तुम

मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

 

- दुष्यंत कुमार

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