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हरिवंश राय बच्चन - तुम मुझे पुकार लो


(19)  


 तुम मुझे पुकार लो



इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!


ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!


तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!


उज़ाड़ से लगा चुका उम्मीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की, बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका, उमीद मैं तुषार की
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!



 - हरिवंश राय बच्चन


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