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हरिवंशराय बच्चन - था तुम्हें मैंने रुलाया

(6)  


 था तुम्हें मैंने रुलाया


हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!



स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!



बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर -
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!


- हरिवंशराय बच्चन


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