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सूरदास -- मन न भए दस-बीस

   (7)



मन न भए दस-बीस



ऊधौ मन न भए दस-बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस॥
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस।
आसा लागि रहत तन स्वासा जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के सकल जोग के ईस।
सूर हमारैं नंदनंदन बिनु और नहीं जगदीस॥



- सूरदास


भावार्थ :--

गोपियां कहती है
, `मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस मन तो हैं नहीं कि एक को किसी के लगा दें और दूसरे को किसी और में। अब वह भी नहीं है, कृष्ण के साथ अब वह भी चला गया। तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना अब किस मन से करें ?" `स्वासा....बरीस,' गोपियां कहती हैं,"यों तो हम बिना सिर की-सी हो गई हैं, हम कृष्ण वियोगिनी हैं, तो भी श्याम-मिलन की आशा में इस सिर-विहीन शरीर में हम अपने प्राणों को करोड़ों वर्ष रख सकती हैं।" `सकल जोग के ईस' क्या कहना, तुम तो योगियों में भी शिरोमणि हो। (यह व्यंग्य है) श्री कृष्ण के सिवा हमारा कोई इष्ट नहीं है

शब्दार्थ :-
 हुतो =था। 
अवराधै = आराधना करे, उपासना करे।
 ईस =निर्गुण ईश्वर।  
सिथिल भईं= = निष्प्राण सी हो गई हैं।
स्वासा = श्वास, प्राण। 
बरीश = वर्ष । 
पुरवौ मन = मन की इच्छा पूरी करो।


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