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जाँनिसार अख्तर - जब लगें ज़ख्म

  ( 3 )

जब लगें ज़ख्म 

जब लगें ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये

तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये

दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये

हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये

हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये

हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये
 
- जाँनिसार अख्तर

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जाँनिसार अख्तर - हर एक रूह में

 ( 2 )

हर एक रूह में

हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये ज़िंदगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे

जो आंसुओं से कभी रात भीग जाती है
बोह'त क़रीब वह आवाज़-ए-पा लगे है मुझे

मैं जब भी उसके ख़यालों में खो सा जाता हूं
वह ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे

दबा के आई है सीने में कौन सी आहें
कुछ आज रंग तेरा सांवला लगे है मुझे

न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है
कभी कभी तो बड़ा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे

बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वुजूद
हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे

अब एक आध क़दम का हिसाब क्या रखिए
अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझे

हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल कुछ कशिश तो रखती है
ज़माना ग़ौर से सुनता हुआ लगे है मुझे

 - जाँनिसार अख्तर

 

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जाँनिसार अख्तर - रुखों के चांद

 ( 1 )

रुखों के चांद

रुखों के चांद, लबों के गुलाब मांगे है
बदन की प्यास, बदन की शराब मांगे है

मैं कितने लम्हे न जाने कहाँ गँवा आया
तेरी निगाह तो सारा हिसाब मांगे है

मैं किस से पूछने जाऊं कि आज हर कोई
मेरे सवाल का मुझसे जवाब मांगे है

दिल-ए-तबाह का यह हौसला भी क्या कम है
हर एक दर्द से जीने की ताब मांगे है


बजा कि वज़ा-ए-हया भी है एक चीज़ मगर
निशात-ए-दिल तुझे बे-हिजाब मांगे है

- जाँनिसार अख्तर 

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